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महापुराणम् पोषयन्ति महीपाला भूत्यानवसरं प्रति । न चेदवसरः सार्यः किमेभिस्तृणमानुषः ॥१४३॥ कलेवरमिदं त्याज्यम् अर्जनीयं यशोधनम् । जयश्रीविजय लभ्या नाल्पोवर्को रणोत्सवः ॥१४४॥ मन्दातपशरच्छाये प्रत्यङगैर्बाणजर्जरैः । लप्स्यामहे कदा नाम विश्रमं रणमण्डपे ॥१४॥ प्रत्यनीककृतानेकव्यूह निभिद्य सायकैः। शरशय्यामसम्बाधम् अध्याशिष्ये कदा न्वहम् ॥१४६॥ कर्णतालानिलाधूति विधूतसमरश्रमः । गजस्कन्धे निषीदामि कदाहं क्षणमूछितः ॥१४७॥ दन्तिदन्ता र्गलप्रोतोद्गलदन्त्र स्खलद्वचाः । जयलक्ष्मीकटाक्षाणां कदाऽहं लक्ष्यतां भजे ॥१४८।। गजदन्तान्तरालम्बिस्वान्त्रमालावरत्रया । कहि दोलामिवारोप्य तुलयामि जयश्रियम् ॥१४६॥ ब्रुवाणैरिति सङग्रामरसिकरुद्भटर्भटः । शस्त्राणि सशिरस्त्राणि सज्जान्यासन् बले बले ॥१५०॥ ततः कृतभयं भूयो भटभ कुटिजितः। पलायितमिव क्वाऽपि परिच्छित्तिमगादहः ॥१५१॥ अथोरुष्यद्भटानीकनेत्रच्छायापितां रुचम् । दधान इव तिग्मांशुः प्रासीदारक्तमण्डलः ॥१५२॥ क्षणमस्ताचलप्रस्थकाननक्ष्माजपल्लवैः। सदगालोहितच्छायो ददृशेऽकाशसंस्तरः ॥१५३॥
सत्कार किया है क्या उसका बदला हम कुछ दे सकेंगे ? ॥१४२॥ राजा लोग समयके लिये ही सेवक लोगोंका पालनपोषण करते हैं, यदि समय नहीं साधा गया अर्थात् अबसर पड़ने पर स्वामीका कार्य सिद्ध नहीं किया गया तो फिर तणसे बने हुए इन पुरुषोंसे क्या लाभ है ? भावार्थ-जो पुरुष अवसर पड़नेपर स्वामीका साथ नहीं देते वे घास-फसके बने हा पुरुषों के समान सर्वथा सारहीन हैं ॥१४३।। अब यह शरीर छोड़ना चाहिये, यशरूपी धन कमाना चाहिये और विजय लाभकर जयलक्ष्मी प्राप्त करनी चाहिये, यह यद्वका उत्सव कूछ थोड़ा फल देने वाला नहीं है ॥१४४॥ हम लोग, घावोंसे जर्जर हुए शरीरके प्रत्येक अंगोंसे, जिसमें घामको मन्द करनेवाली बाणोंकी छाया पड़ रही है ऐसे युद्धके मण्डपमें कब विश्राम करेंगे? ।।१४५॥ कोई कहता था कि मैं कब अपने बाणोंसे शत्रुओंकी सेनाके द्वारा किये हए अनेक व्यहोंको छेदकर विना किसी उपद्रवके बाणोंकी शय्यापर शयन करूँगा ॥१४६॥ कोई कहता था कि मैं कब युद्धमें क्षण भरके लिये मूछित होकर हाथीके कानरूपी ताड़पत्रकी वायके चलने से जिसके युद्धका सब परिश्रम दूर हो गया है ऐसा होता हुआ हाथीके कंधेपर बैठगा ? ॥१४७।। हाथीके दांतरूपी अर्गलोंमें पिरोये जानेसे जिसकी अंतड़ियां निकल रही हैं तथा जिसके मुग्बसे टूट-फट शब्द निकल रहे हैं ऐसा होता हआ में कब जयलक्ष्मीक कटाक्षोका निशाना बन सकंगा! भावार्थ-वह दिन कब होगा जब कि मैं मरता हुआ भी विजय प्राप्त करूँगा? ॥१४८।। कोई कहता था कि हाथियोंके दांतोंके बीच में लटकती हुई अपनी अंतड़ियोंके समूहरूपी मजबूत रस्सीपर झूलाके समान विजयलक्ष्मीको बैठाकर मैं कब उसे तोलूगा ? ॥१४९।। इस प्रकार कहते हुए युद्धके प्रेमी बड़े बड़े योद्धाओंने प्रत्येक सेनामें अपने अपने शस्त्र तथा गिरकी रक्षा करनेवाली टोपियां सँभाल लीं ॥१५०॥
तदनन्तर दिन समाप्त हो गया सो ऐसा मालूम होता था मानो योद्धाओंकी भौंहोंके तिरस्कारसे भयभीत होकर कहीं भाग ही गया हो ॥१५१।। अथानन्तर सूर्यका मंडल लाल हो गया मानो उसने क्रोधित हुए योद्धाओंकी सेनाके नेत्रोंकी छायाके द्वारा दी हुई लाल कान्ति ही धारण की हो ॥१५२॥ उस समय क्षण भरके लिये सूर्यको किरणोंका समूह अस्ताचल
१ न गम्यश्चेत् । २ विश्राम ल०, द०, अ०, ५०, स० । ३ शत्रुकृतसेनारचनाम् । ४ अवधनन । ५ निषण्णो भवामि । 'कदाकोर्वा' इति भविष्यदर्थे लट् । ६ परिघ । ७ -तोदगलदस्रट० । निर्यद्रक्तः । ८ निजपुरीतमालदुष्यया । 'दूष्या कक्ष्या वरत्रा स्याद्' इत्यभिधानात्। हकदा। १० विनाशम् । ११ दिवसः । १२ अथारुष्य-ल० । १३ सानु । १४ रविकिरणसमूहः ।
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