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पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व
तुलापुरुष एवायं यो नाम निखिलै पैः । तुलितो रत्न'पुजेन बत नैश्वर्यमीदृशम् ॥१३२॥ घवं स्वगुरुणा दत्ताम् प्राचिच्छित्सति नो भुवम् । प्रत्याख्येयत्वमुत्सृज्य गृध्नोरस्य किमौषधम् ॥१३३॥ दूत तातवितीर्णा नो महीमेनां कुलोचिताम् ।"भ्रातृजायामिवाऽऽदित्सोः नास्य लज्जा भवत्पतेः॥१३४॥ देयमन्यत् स्वतन्त्रेण यथाकामं जिगीषुणा । मुक्त्वा कुलकलत्रं च मातलं च भुजाजितम् ॥१३॥ भूयस्त दलमालप्य स वा भुक्तां महीतलम् । चिरमेकातपत्राऊकम् अहं वा भुजविक्रमी ॥१३६॥ कृतं वथा भटालापः अर्थसिद्धिबहिष्कृतः । सङग्रामनिकषे व्यक्तिः पौरुषस्य ममास्य च ॥१३७॥ ततः समरसंघट्टे यद्वा तद्वाऽस्तु नौ द्वयोः । नीरे कमिदमेकं नो वचो हर वचोहर" ॥१३॥ इत्याविष्कृतमानेन कुमारेण वचोहरः । द्रुतं विजितोऽगच्छत्१२ पति सन्नाहयेत्१३ परम् ॥१३॥ तदा मकटसंघट्टाद् उच्छलन्मणिकोटिभिः । कृतोल्मुक शतक्षेपः इवोत्तस्थे महीशिभिः ॥१४०॥ क्षणं समरसंघट्टपिशनो भटसङकटः । श्रयते स्म भटालापो बले भुजबलोशितुः ॥१४॥ चिरात् समरसम्मदः स्वामिनोऽयमभूदिह । किं वयं स्वामिसत्काराद् अनृणीभवितुं क्षमाः ॥१४२॥ जो समस्त राजाओंके द्वारा रत्नोंकी राशिसे तोला गया है ऐसा यह भरत एक प्रकारका तुलापुरुष है खेद है कि ऐसा ऐश्वर्य नहीं होता ।।१३२।। अवश्य ही वह भरत अपने पूज्य पिता श्री भगवान् वृषभदेवके द्वारा दी हुई हमारी पृथिवीको छीनना चाहता है सो इस लोभीका प्रत्याख्यान अर्थात् तिरस्कार करनेके सिवाय और कुछ उपाय नहीं है ।।१३३॥ हे दूत, पिताजीके द्वारा दी हुई यह हमारे ही कुलकी पृथिवी भरतके लिये भाईकी स्त्रीके समान है अब वह उसे ही लेना चाहता है सो तेरे ऐसे स्वामीको क्या लज्जा नहीं आती ? ।।१३४।। जो मनुष्य स्वतन्त्र हैं और इच्छानुसार शत्रुओंको जीतनेकी इच्छा रखते हैं वे अपने कुलकी स्त्रियों और भुजाओंसे कमाई हुई पृथिवीको छोड़कर बाकी सब कुछ दे सकते हैं ।।१३५।। इसलिये बार-बार कहना व्यर्थ है, एक छत्रसे चिह्नित इस पृथिवीको वह भरत ही चिरकालतक उपभोग करे अथवा भुजाओंमें पराक्रम रखनेवाला में ही उपभोग करूं। भावार्थ-मुझे पराजित किये बिना वह इस पृथिवीका उपभोग नहीं कर सकता ।।१३६॥ जो प्रयोजनकी सिद्धिसे रहित हैं ऐसे शूरवीरताके इन व्यर्थ वचनोंसे क्या लाभ है? अब तो युद्धरूपी कसौटी पर ही मेरा और भरतका पराक्रम प्रकट होना चाहिये ॥१३७॥ इसलिये हे दूत, तू यह हमारा संदेहरहित एक वचन ले जा अर्थात् जाकर भरतसे कह दे कि अब तो हम दोनोंका जो कुछ होना होगा वह युद्धकी भीड़में ही होगा ॥१३८॥ इस प्रकार अभिमान प्रकट करनेवाले कुमार बाहुबलीने उस दूतको यह कहकर शीघ्र ही बिदा कर दिया कि जा और अपने स्वामी को युद्ध के लिये जल्दी तैयार कर ॥१३९।। उस समय जिनके मुकुटोंके संघर्षणसे करोड़ों मणि उछल-उछलकर इधर-उधर पड़ रहे हैं और उन मणियोंसे जो ऐसे जान पड़ते हैं मानो अग्नि के सैकड़ों फुलिङ्गोंको ही इधर उधर फैला रहे हों ऐसे राजा लोग उठ खड़े हुए ॥१४०।। उसी क्षण अनेक योद्धाओंसे भरी हुई महाराज बाहुबलीकी सेनामें युद्धकी भीड़को सूचित करनेवाला योद्धा लोगोंका परस्परका आलाप सुनाई देने लगा था ॥१४१।। इस समय स्वामीके यह युद्धकी तैयारी बहुत दिनमें हुई है, क्या अब हम लोग स्वामीके सत्कारसे ऊऋण (ऋणमुक्त) हो सकेंगे ? भावार्थ-स्वामीने आजतक पालन-पोषण कर जो हम लोगोंका महान्
१ रत्नार्थम् । २ छेत्तुमिच्छति । ३ निराकरणीयत्वम् । 'प्रत्याख्यातो निराकृतः' इत्यभिधानात । हेयत्वमित्यर्थः (हेयत्वमेव औषधमित्यर्थः) । ४ लुब्धस्य । ५ अनुजकलत्रम् । ६ आदातुमिच्छोः । ७ तत् कारणात् । ८ बहुप्रलापरलम् । निःसन्देहम्। १० स्वीकुरु। ११ भो दूत । १२ गच्छ पति द०, ल०, । १३ सन्नद्धं कुरु । १४ रत्नसमूहैः । १५ अलातः। १६ भटसमूहैः ।
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