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महापुराणम् दधच्चाकचरों वृत्ति बलि भिक्षामिवाहरन् । दीनतायाः परां कोटि प्रभुरारोपितस्त्वया ॥१२३॥ सत्यं दिग्विजय चक्री जितवानमरानिति । 'प्रत्ययमिदमेतत्तु चिन्त्यमत्र' ननु त्वया ॥१२४॥ स कि न दर्भशय्यायां सप्तो नोपोषितोऽथवा । प्रवृत्तो जलमायायां शरपातं समाचरन् ॥१२॥ कृतचक्रपरिभ्रान्तिः ‘दण्डेनायतिशालिना । घटयन् 'पार्थिवानेष सकुलालायते वत ॥१२६॥ प्राग:३० परागमातन्वन् स्वयमेष कलङकितः। चिरं कलङकयत्येष कुलं "कुलभूतामपि ॥१२७॥ न पानाकर्षतो दूरान्मन्त्रः तन्त्रैश्च योजितः । श्लाघ्यते कियदेतस्य पौरुषं लज्जया विना ॥१२८॥ दुनोति नो भूशं दूत इलाध्यतेऽस्य यदाहवः । दोलायित जले यस्य बलं म्लेच्छबलैस्तदा ॥१२॥ यशोधनमसंहार्य क्षत्रपुत्रेण रक्ष्यताम् । निखनन्तो२ निधीन भूमौ बहवो निधनं१३ गताः ॥१३०॥ रत्न: किमस्ति वा कृत्यं यान्यरत्निमिता" भवम् । “न यान्ति यत्कृते यान्ति केवलं निधनं नृपाः ॥१३॥
हुआ यह समस्त कार्य हम लोगोंको केवल वचनाडम्बर ही जान पड़ता है क्योंकि कहां तो इसका दिग्विजयका प्रारम्भ करना और कहां धन इकट्ठा करने में तत्पर होना ? ॥१२२। जिस प्रकार भिक्षुक चक्र धारण कर भिक्षा मांगता हुआ अतिशय दीनताको प्राप्त होता है उसी प्रकार चक्रवर्तीकी वृत्ति धारण कर भिक्षाके समान कर वसूल करता हुआ तेरा स्वामी भरत तेरे द्वारा दीनताकी परम सीमाको प्राप्त करा दिया गया है ॥१२३॥ यह ठीक है कि चत्रवर्तीने दिग्विजयके समय देवोंको भी जीत लिया है परन्तु यह बात केवल विश्वास करने योग्य है अन्यथा तू यहां इतना तो विचार कर कि जलस्तम्भन करने में प्रवृत्त हुए तेरे स्वामी भरतने जब बाण छोड़ा था तब वह क्या दर्भकी शय्यापर नहीं सोया था अथवा उसने उपवास नहीं किया था ।।१२४-१२५॥ जिस प्रकार कुम्हार आयति अर्थात् लम्बाईसे शोभायमान डंड़े के द्वारा चक्रको घुमाता हुआ पार्थिव अर्थात् मिट्टीके घट बनाता है उसी प्रकार भरत भी आयति अर्थात् सुन्दर भविष्यसे शोभायमान डंड़े (दण्ड रत्न) से चक्र (चक्ररत्न) को घुमाता हआ पार्थिव अर्थात् पथिवीके स्वामी राजाओंको वश करता फिरता है, इसलिये कहना पड़ता है कि तुम्हारा यह राजा कुम्हारके समान आचरण करता है ।।१२६।। वह भरत पापकी धुलिको उड़ाता हुआ स्वयं कलंकित हुआ है और कुलीन मनुष्योंके कुलको भी सदाके लिये कलंकित कर रहा है ॥१२७।। हे दूत, प्रयोगमें लाये हुए मंत्र-तंत्रोंके द्वारा दुरसे ही अनेक राजाओंको बलानेवाले इस भरतका पराक्रम त लज्जाके बिना कितना वर्णन कर रहा ॥१२८॥ हे दूत, जिस समय तू इसके युद्धकी प्रशंसा करता है उस समय हम लोगोंको बहुत दुःख होता है क्योंकि उस समय म्लेच्छोंकी सेनाके द्वारा भरतकी सेना पानी में हिंडोले झल रही थी अर्थात् हिंडोलेके समान कैंप रही थी ॥१२९॥ क्षत्रियपुत्रको तो जिसे कोई हरण न कर सके ऐसे यशरूपी धनकी ही रक्षा करनी चाहिये क्योंकि इस पृथिवीमें निधियों को गाड़ कर रखनेवाले अनेक लोग मर चुके हैं। भावार्थ-अमरता यशसे ही प्राप्त होती है ॥१३०॥ अथवा जो रत्न एक हाथ पथिवी तक भी साथ नहीं जाते और जिनके लिये राजा लोग केवल मत्यको ही प्राप्त होते हैं ऐसे रत्नोंसे क्या कार्य निकल सकता है ? ॥१३॥
१ चक्रस्येयं चाकी सा चासौ चरी च चाक्रचरी ताम् । चक्रचरसम्बन्धिनीम् । चाक्रधरी ल०, द०, अ०, प०, स०, इ० । २ करम्। ३ परमप्रकर्षम् । ४ शपथं कृत्वा विश्वास्यम् । ५ वक्ष्यमाणम् । ६ अमरजये। ७ समुद्रजलस्तम्भनरूपमायायाम् । ८ दण्डरत्नेन सैन्येन वा। नृपान् । पृथिवीविकारांश्च । मृत्पिण्डान् । । १० परागः । अपराधरेणुम् । 'पापापराधयोरागः' इत्यभिधानात् । ११ मनूनाम् । कुलधृतामपि ट० । १२ निक्षिपन्तः । १३ विनाशम् । १४ हस्तप्रमिताम् । 'अरत्निस्तु निष्कनिष्ठेन मुष्ठिना' इत्यभिधानात् । १५ गत्यन्तरगमनेन सह न यान्ति ।
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