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चतुस्त्रिंशत्तम पर्व
१६६ स्तुति निन्दा सुखं दुःख तथा मानं विमाननाम्। समभावेन तेऽपश्यन् सर्वत्र समशिनः ॥२०४॥ वाचंयमत्वमास्थाय चरन्तो गो चरार्थिनः । निर्यान्ति स्माप्यलाभेन नाभञ्जन मौनसङगरम् ॥२०॥ महोपवासम्लानाङगा यतन्ते स्म तनु स्थितौ । तत्राप्यशुद्धमाहारं नैषिषुर्मनसाऽप्यमी ॥२०६॥ गोचराग्रगता" योग्यं भक्त्वान्नमविलम्बितम् । प्रत्याख्याय पुनर्वीरा निर्ययुस्ते तपोवनम् ॥२०७॥ तपस्तापतनूभूततनवोऽपि मुनीश्वराः । अनबुद्धात्तपोयोगान्न चे लुढ'सङगराः॥२०८॥ तीवं तपस्यतां तेषां गात्रेष, श्लथताऽभवत् । प्रतिज्ञा या तु सद्ध्यानसिद्धावशिथिलैव सा ॥२०६॥ नाभूत्परिषहर्भङगस्तेषां चिरमुपोषुषाम् । गताः परिषहा एव भङगं तान् जेतुमक्षमाः ॥२१०॥ तपस्तनपातापावभूतेषां पराद्य तिः । निष्टप्तस्य सवर्णस्य दीप्तिर्नन्वतिरेकिणी" ॥२११॥ तपोऽग्नितप्तदीप्ताङगास्तेऽन्तःशुद्धि परां दधुः। तप्तायां तनमूषायां शुद्धयत्यात्मा हि हेमवत् ॥२१२॥ त्वगस्थिमात्रदेहास्ते ध्यानशु द्धिमधुस्तराम् । सर्व हि परिकर्मेदं५ बाह्यमध्यात्मशुद्धये ॥२१३॥ योगजाः सिद्धयस्तेषाम् अणिमादिगुणर्द्धयः । प्रादुरासन्विशुद्धं हि तपः सूते महत्फलम् ॥२१४॥
रूपी अधिक लाभ समझते हए विषाद नहीं करते थे ।।२०३।। सब पदार्थोंमें समान दृष्टि रखने वाले वे मुनि स्तुति, निन्दा, सुख, दुःख तथा मान-अपमान सभीको समान रूपसे देखते थे ॥२०४॥ वे मुनि मौन धारण करके ईर्यासमितिसे गमन करते हुए आहारके लिये जाते थे और आहार न मिलनेपर भी मौनव्रतकी प्रतिज्ञा भङ्ग नहीं करते थे ।।२०५॥ अनेक महोपवास करनेसे जिनका शरीर म्लान हो गया है ऐसे वे मुनिराज केवल शरीरकी स्थितिके लिये ही प्रयत्न करते थे परन्तु अशुद्ध आहारकी मनसे भी कभी इच्छा नहीं करते थे ॥२०६॥ गोचरीवृत्तिके धारण करनेवालोंमें मुख्य वे धीरवीर मुनिराज शीघ्र ही योग्य अन्नका भोजन कर तथा आगेके लिये प्रत्याख्यान कर तपोवनके लिय चले जाते थे ॥२०७।। यद्यपि तपश्चरणके संतापसे उनका शरीर कृश हो गया था तथापि दढ प्रतिज्ञाको धारण करने वाले वे मनिराज प्रारम्भ किये हए तपसे विराम नहीं लेते थे ।।२०८।। तीव्र तपस्या करनेवाले उन मुनियोंके शरीर में यद्यपि शिथिलता आ गई थी तथापि समीचीन ध्यानकी सिद्धिके लिये जो उनकी प्रतिज्ञा थी वह शिथिल नहीं हुई थी ।।२०९।। चिरकाल तक उपवास करनेवाले उन मुनियोंका परीषहोंके द्वारा पराजय नहीं हो सका था बल्कि परीषह ही उन्हें जीतने के लिये असमर्थ होकर स्वयं पराजय
। गयं थे ॥२१०।। तपरूपी अग्निक संतापसे उनके शरीरकी कान्ति बहुत ही उत्कृष्ट हो गई थी सो ठीक ही है क्योंकि तपे हए सवर्णकी दीप्ति बढ ही जाती है ।।२१।। तपश्चरणरूपी अग्निसे तप्त होकर जिनके शरीर अतिशय देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसे वे मुनिराज अन्तरङ्गकी परम विशुद्धिको धारण कर रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि शरीररूपी मूसा (साँचा) तपाये जानेपर आत्मा सुवर्णके समान शुद्ध हो ही जाती है ॥२१२॥ यद्यपि उनके शरीरमें केवल चमड़ा और हड्डी ही रह गई थी तथापि वे ध्यानकी उत्कृष्ट विशुद्धता धारण कर रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि उपवास आदि समस्त बाह्य साधन केवल आत्मशुद्धिकं लिये ही है ॥२१३।। योगके प्रभावसे उत्पन्न होनेवाली अणिमा महिमा आदि ऋद्धियां उन मुनियों के प्रकट हो गई थीं सो ठीक ही है क्योंकि विशुद्ध तप बहुत बड़े बड़े फल उत्पन्न करता है ।।२१४।।
१ पूजाम्। २ अवज्ञाम् । ३ मीनित्वम् । ४ गोचार। ५ मौनप्रतिज्ञाम् । ६ इच्छां न चक्रुः । ७ गोचारभिक्षायां मुख्यतां गताः । ८ शीघम् । '६ प्रत्याख्यानं गृहीत्वा । १० -नारेमु,अ०, स०, इ०, ५०, द०। ११ दृढ़प्रतिज्ञाः । १२ तपः कुर्वताम् । १३ तपोऽग्निजनितसन्तापात् । १४ न व्यतिरेकिणी ल०, द० । १५ अनशनादि ।
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