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महापुराणम्
ततश्चक्रेणायं यदादिष्ट प्रियोचितम्। प्रयोक्तृगौरवादेव तद्ग्राह्यं साध्वसाधु वा ॥ ६५॥ गुरोर्वचनमादेयम् श्रविकल्पयेति' या श्रुतिः । तत्प्रामाण्यादमुष्याज्ञा संविधेया त्वयाधुना ॥ ६६ ॥ ऐक्ष्वाकः प्रथमो रातां भरतो भववप्रजः परिक्रान्ता मही कृत्स्ना येन नामयताऽमरान् ॥ ६७॥ गाद्वारं समुहलाच यो रथेनाप्रतिष्कशः । चलदाविद्धकल्लोल म् अकरोन्मकरालयम् ॥६८॥ शरव्याजः प्रतापाग्निः ज्वलत्यस्य जलेऽम्बुधः । पप न केवलं वाडि मानं च त्रिदिवौकसाम् ॥६६॥ मा नाम प्रणति यस्य 'ब्राजिषुर्मुसदः कथम् । प्राकृष्टाः शरपाशेन प्राप्वंकृत्य गले बलात् ॥७०॥ 'शरव्यमकरोद् यस्य शरपातो महाम्बुधौ । प्रसभं मगधावासं क्रान्तद्वादशयोजनः ॥ ७१ ॥ विजयार्द्धाचल यस्य विजयो घोषितोऽमरैः । जयतो विजयार्द्धशं शरेणामोघपातिना ॥ ७२ ॥ कृतमालादयो देवा गता यस्य विधेयताम्' । "कृतमस्योभयश्रेणीन" भोगजयवर्णनः ॥७३॥ गुहामुखमपध्वान्तं व्यतीत्य जयसाधनंः । उत्तरां विजयार्द्धाद्रिः यो व्यगाहत तां महीम् ॥७४॥ म्लेच्छाननिच्छतोऽप्याज्ञां प्रच्छाद्य र जयसाधनैः । सेनान्या यो जयं प्राप बलादाच्छिद्य " तद्धनम् ॥७५॥
वाले हैं हम लोग सदा स्वामीके अभिप्रायके अनुसार चलते हैं तथा गुण और दोषोंका विचार करनेमें भी असमर्थ हैं ।। ६४ ।। इसलिये हे आर्य, चक्रवर्तीने जो प्रिय और उचित आज्ञा दी है वह अच्छी हो या बुरी, केवल कहनेवालेके गौरवसे ही स्वीकार करने योग्य है ||६५॥ गुरुके वचन बिना किसी तर्क-वितर्कके मान लेना चाहिये यह जो शास्त्रका वचन है उसे प्रमाण मानकर इस समय आपको चक्रवर्तीकी आज्ञा स्वीकार कर लेनी चाहिये ॥ ६६ ॥ वह भरत इक्ष्वाकुवंशम उत्पन्न हुआ है अथवा इक्ष्वाकु अर्थात् भगवान् वृषभदेवका पुत्र है, राजाओं में प्रथम है, आपका बड़ा भाई है और इसके सिवाय देवोंसे भी नमस्कार कराते हुए उसने समस्त पृथिवी अपने वश कर ली है ॥६७॥ उसने गंगाद्वारको उल्लंघन कर अकेले ही रथपर बैठकर समुद्रको जिसकी चञ्चल लहरें एक दूसरे से टकरा रही हैं ऐसा कर दिया ।। ६८ ।। बाणके बहाने से इसकी प्रतापरूपी अग्नि समुद्रके जलमें भी प्रज्वलित रहती है, उस अग्निने केवल समुद्र को ही नहीं पिया है किन्तु देवोंका मान भी पी डाला है ॥ ६९ ॥ भला, देव लोग उसे कैसे न नमस्कार करेंगे ? क्योंकि उसने बाणरूपी जालसे गलेमें बांधकर उन्हें जबर्दस्ती अपनी ओर खींच लिया था ||७०|| बारह योजन दूरतक जानेवाले उसके बाणने महासागर में रहने वाले मागधदेव के निवासस्थानको भी जबर्दस्ती अपना निशाना बनाया था ॥ ७१ ॥ व्यर्थ न जानेवाले बाणके द्वारा विजयार्थ पर्वतके स्वामी विजयार्थदेवको जीतनेवाले उस भरतको विजय घोषणा देवोंने भी की थी ||७२॥ कृतमाल आदि देव उसकी आधीनता प्राप्त कर चुके हैं और उत्तर दक्षिण दोनों श्रेणियोंके विद्याधरोंने भी उसकी जयघोषणा की है ॥७३॥ जिसका अन्धकार दूर कर दिया गया है ऐसे गुफाके दरवाजेको अपनी विजयी सेनाके साथ उल्लंघन कर उसने विजयार्ध पर्वतकी उत्तर दिशाकी भूमिपर भी अपना अधिकार कर लिया है ॥७४॥ म्लेच्छ लोग यद्यपि उसकी आज्ञा नहीं मानना चाहते थे तथापि उसने सेनापतिके द्वारा अपनी
१ उपदेशितम | २ भेदमकृत्वा । ३ इक्ष्वाकोः सकाशात् संजातः । ४ असहायः । ५ परस्परताडित । अथवा कुटिल । 'आविद्धं कुटिलं भुग्नं वेल्लितं वमित्यभिधानात् । ६ अगः । माध्योगादडभावः । ७] बन्धनं कृत्वा । 'प्राध्वं बन्धे' इति सुषेण तिसंज्ञायां "तिदुस्वत्यान्यस्त सत्पुरुषः इति समासः समासे को नव्नः प्यः इति क्त्वाप्रत्ययस्य' प्यादेशः । ८ लक्ष्यम् । विनयप्राहिताम | 'विनेयो विनयग्राही' इत्यभिधानात् । १० पर्याप्तम् । ११ श्रेणीनभोगैर्जयवर्णनम् ० ० । श्रेणिनभोजयवर्णने ल० । १२ अपगतान्धकारं कृत्वा । १३ संवेष्टय | १४ बलादाकृष्य ।
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