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पञ्चत्रिंशत्तम पर्व
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हरिन्मणिमयस्तम्भमिवैकं हरितत्विषम् । लोकावष्टम्भमाधातुं सृष्टमाद्येन वेधसा ॥५३॥ सर्वाङगसङगतं तेजो दधानं क्षात्रमूजितम् । नूनं तेजोमयरेव घटितं परमाणुभिः॥५४॥ समित्यालोकयन् दूराद् धाम्नः पुञ्जमिवोच्छिखम् । चचाल प्रणिधिः किञ्चित् प्रणिधाना निधीशितुः ५५ प्रणश्चरणावेत्य दधदूरानतं शिरः । ससत्कारं कुमारेण नातिदूरे न्यवेशि सः ॥५६॥ तं शासनहरं जिष्णोः निविष्टमुचितासने। कुमारो निजगादेति स्मितांशून् विष्वगाकिरन् ॥५७॥ चिराच्चक्रधरस्याद्य वयं 'चिन्त्यत्वमागताः । भद्र भद्रं जगद्भर्तुर्बहुचिन्त्यस्य चक्रिणः ॥५८॥ विश्वक्ष त्रजयोद्योगम् अद्यापि न समापयन् । स कच्चिद् भूभुजां भर्तुः कुशली दक्षिणो भुजः ॥५६॥ श्रुता विश्वदिशः सिद्धा जिताश्च निखिला नृपाः । कर्तव्यशेषमस्याद्य किमस्ति वद नास्ति वा ॥६०॥ इति प्रशान्तमोजस्वि वचःसार मिताक्षरम् । वदन् कुमारो दूतस्य वचनावसरं१३ व्यधात् ॥६॥ अथोपाचक्रमे वक्तुं वचो हारि" वचोहरः । वागर्थाविव सम्पिण्डय५ दर्शयन् दशनांशुभिः ॥६२॥ त्वद्वचः सम्मुखीनेऽस्मिन् कार्य सुव्यक्तमीक्ष्यते । असंस्कृतोऽपि यत्रार्थ प्रत्यक्षयति मादृशः२० ॥६३॥
वयं वचोहरा नाम प्रभोः शासनहारिणः। गुणदोषविचारेषु मन्दास्तच्छन्द वतिनः ॥६४॥ शरीरसे बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहे थे। उनकी कान्ति हरे रङ्गकी थी इसलिये वे ऐसे जान पडते थे मानो आदि ब्रह्मा भगवान वषभदेवके द्वारा लोकको सहारा देनेके लिये बनाया हुआ हरित मणियोंका एक खम्भा ही हो। समस्त शरीरमें फैले हुए अतिशय श्रेष्ठ क्षात्रतेज को धारण करते हुए महाराज बाहुबली ऐसे जान पड़ते थे मानो तेजरूप परमाणुओंसे ही उनकी रचना हुई हो। जिसकी ज्वाला ऊपरकी ओर उठ रही है ऐसे तेजके पुंजके समान महाराज बाहुबलीको दूरसे देखता हुआ वह चक्रवर्तीका दूत अपने ध्यानसे कुछ विचलित-सा हो गया अर्थात् घबड़ा-सा गया ।।४५-५५॥ दूरसे ही झुके हुए शिरको धारण करनेवाले उस दूतने जाकर कुमारके चरणोंमें प्रणाम किया और कुमारने भी उसे सत्कारके साथ अपने समीप ही बैठाया ॥५६॥ कमार बाहबली अपने मन्द हास्यकी किरणोंको चारों ओर फैलाते हए योग्य आसनपर बैठे हुए उस भरतके दूतसे इस प्रकार कहने लगे ।।५७।। कि आज चक्रवर्ती ने बहुत दिनमें हम लोगोंका स्मरण किया, हे भद्र, जो समस्त पृथिवीके स्वामी हैं और जिन्हें बहुत लोगोंको चिन्ता रहती है ऐसे चक्रवर्तीकी कुशल तो है न ? ॥५८।। जिसने समस्त क्षत्रियोंको जीतनेका उद्योग आज तक भी समाप्त नहीं किया है ऐसे राजाधिराज भरतेश्वर की वह प्रसिद्ध दाहिनी भुजा कुशल है न ? ||५९।। सुना है कि भरतने समस्त दिशाएँ वश कर ली हैं और समस्त राजाओंको जीत लिया है। हे दूत, कहो अब भी उनको कुछ कार्य बाकी रहा है या नहीं ? ॥६०॥ इस प्रकार जो अत्यन्त शान्त हैं, तेजस्वी हैं, साररूप हैं, और जिनमें थोड़े अक्षर हैं ऐसे वचन कहकर कुमारने दूतको कहने के लिये अवसर दिया ।।६१॥
तदनन्तर दाँतोंकी किरणोंसे शब्द और अर्थ दोनोंको मिलाकर दिखलाता हुआ दूत मनोहर वचन कहने के लिये तैयार हुआ ॥६२॥ वह कहने लगा कि हे प्रभो, आपके इस वचनरूपी दर्पणमें आगेका कार्य स्पष्ट रूपसे दिखाई देता है क्योंकि उसका अर्थ मुझ जैसा मूर्ख भी प्रत्यक्ष जान लेता है ॥६३॥ हे नाथ, हम लोग तो दूत हैं केवल स्वामीका समाचार ले जाने
१ आधारम् । २ आदिब्रह्मणेत्यर्थः । ३ सप्ताङग अथवा सर्वशरीर। ४ इव । ५ धाम्नां तेजसाम् । ६ चरः। ७ गुणदोषविचारानुस्मरणं प्रणिधानम्, तस्मात् । अभिप्रायादित्यर्थः । ८ चिन्तित योग्याश्चिन्त्याः तेषां भावः चिन्त्यत्वम् । ६ कुशलम् । १० क्षेत्र-इ० । ११ सम्पूर्ण न कुर्वन् । १२ किम् । १३ वचनस्यावसरम् । १४ मनोज्ञम् । १५ पिण्डीकृत्य । १६ दन्तकान्तिभिः । १७ तव वागदर्पण। १८ संस्काररहितः । १६ प्रत्यक्षं करोति । २० मविधः । २१ चक्रिवशवतिनः । -च्छन्दचारिणः ल०, द० ।
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