________________
चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व शार्दूलविक्रीडितम्
नत्वा विश्वसृज चराचरगुरुं देवं दिवोशाचितं
नान्यस्य प्रणतिं व्रजाम इति ये दीक्षां परां संश्रिताः ॥ ते नः सन्तु तपोविभूतिमुचितां स्वीकृत्य मुक्तिश्रियां
Jain Education International
बच्छावृषभात्मजा जिनजुषाम प्रेसराः श्रेयसे ॥ २२२ ॥ स श्रीमान् भरतेश्वरः प्रणिधिभिर्वान्प्रहृतां नानयत्
सम्भोक्तुं निखिलां विभज्य वसुधां सार्द्ध च येनशकत् । निर्वाणाय पितृषभं जिनवृषं ये शिश्रियः श्रेयसे
ते नो मानधना हरन्तु दुरितं निर्दग्धकर्मेन्धनाः ॥२२३॥ इत्या भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसङग्रहे भरतराजानुजदीक्षा वर्णनं नाम चतुस्त्रिशत्तमं पर्व ॥ ३४ ॥
समस्त लोकका हित करनेवाले थे ऐसे वे भगवान् वृषभदेवके पुत्र तुम सबका कल्याण करें ।।२२०-२२१।। त्रस और स्थावर जीवों के गुरु तथा इन्द्रोंके द्वारा पूज्य भगवान् वृषभदेवको नमस्कार कर अब हम किसी दूसरेको प्रणाम नहीं करेंगे ऐसा विचारकर जिन्होंने उत्कृष्ट दीक्षा धारण की थी, जिन्होंने योग्य तपश्चरणरूपी विभूतिको स्वीकार कर मोक्षरूपी लक्ष्मीके प्रति अपनी इच्छा प्रकट की थी और जिनेन्द्र भगवान् की सेवा करनेवालोंमें सबसे मुख्य हैं ऐसे भगवान् वृषभदेव के पुत्र हम सबके कल्याणके लिये हों ।। २२२ ॥ | वह प्रसिद्ध श्रीमान् भरत अपने दूतों के द्वारा जिन्हें नम्रता प्राप्त नहीं करा सका और न विभाग कर जिनके साथ समस्त पृथिवीका उपभोग ही कर सका तथा जिन्होंने निर्वाणके लिये अपने पिता श्री जिनेन्द्रदेवका आश्रय लिया ऐसे अभिमानरूपी धनको धारण करनेवाले और कर्मरूपी ई धनको जलानेवाले वे मुनिराज हम सब लोगों के पापों का नाश करें ।। २२३॥
१७१
इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके भाषानुवादमें भरतराज के छोटे भाइयोंकी दीक्षा का वर्णन करनेवाला
चौंतीसवाँ पर्व
समाप्त हुआ
1
१ इन्द्र । २ जिनं जुषन्ते सेवन्त इति जिनजुषः तेषाम् । ३ चरैः । 'प्रणिधिः प्रार्थने चरे' इत्यभिधानात् । ४ समर्थो नाभूत् ।
५ आश्रयन्ति स्म ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org