________________
पश्चत्रिंशत्तम पर्व
१७३
शेषक्षत्रिययूनां च तस्य चास्त्यन्तरं महत् । मृगसामान्य मानायः धर्तु किं शक्यते हरिः ॥११॥ सोऽभेद्यो नीतिचुञ्चुत्वाद् दण्डसाध्यो न विक्रयी। नैष सामप्रयोगस्य विषयो विकृताशयः ॥१२॥ ज्वलत्येव स तेजस्वी स्नेहेनोपकृतोऽपि सन् । घृताहुति प्रसेकेन यथेद्धाचिर्मखानिलः ॥१३॥ स्वभावपरुष चास्मिन् प्रयुक्तं साम नार्थकृत् । वपुषि द्विरदस्येव योजितं त्वच्यमौषधम् ॥१४॥ प्रायो व्याख्यात एवास्य भावः शेषः कुमारकैः । मदाज्ञाविमुखैस्त्यक्तराज्यभोगैनोन्मुखैः ॥१५॥ भूयोऽप्यनुनयरस्य परीक्षिष्यामहे मतम् । तथाप्यप्रणते तस्मिन् विधेयं चिन्त्यमुत्तरम् ॥१६॥ ज्ञातिव्याजनिगूढान्तबिक्रियो० निष्प्रतिक्रियः। सोऽन्तर्ग्रहोत्थितो वह्निरिवाशेषं दहेत् कुलम् ॥१७॥ अन्तः प्रकृतिजः कोपो विघाताय प्रभोर्मतः । तरुशाखाग्रसंघट्टजन्मा वह्निर्यथा गिरेः ॥१८॥ तदाशु प्रतिकर्तव्यं स बली वक्रतां श्रितः। क्रूर ग्रह इवामुष्मिन् प्रशान्ते शान्तिरेव नः ॥१६॥
इति निश्चित्य कार्यज्ञं दूतं मन्त्रविशारदम्। तत्प्रान्तं प्राहिणोच्चक्री निसृष्टार्थतयाऽन्वितम् ॥२०॥ मन्त्रविद्यामें चतुर पुरुषोंके बिना वश नहीं हो सकता ॥१०॥ शेष क्षत्रिय युवाओंमें और बाहुबलीमें बड़ा भारी अन्तर है, साधारण हरिण यदि पाशसे पकड़ लिया जाता है तो क्या उससे सिंह भी पकड़ा जा सकता है ? अर्थात् नहीं। भावार्थ-हरिण और सिंहमें जितना अन्तर है उतना ही अन्तर अन्य कुमारों तथा बाहुबलीमें है ॥११॥ वह नीतिमें चतुर होनेसे अभेद्य है, अर्थात फोडा नहीं जा सकता, पराक्रमी है इसलिये यद्धमें भी वश नहीं सकता और उसका आशय अत्यन्त विकारयुक्त हो रहा है इसलिये उसके साथ शान्तिका भी प्रयोग नहीं किया जा सकता। भावार्थ-उसके साथ भेद, दण्ड और साम तीनों ही उपायोंसे काम लेना व्यर्थ है ॥१२॥ जिस प्रकार यज्ञकी अग्नि घीकी आहुति पड़नेसे और भी अधिक प्रज्वलित हो उठती है उसी प्रकार वह तेजस्वी बाहुवली स्नेह अर्थात् प्रेमसे उपकृत होकर और भी अधिक प्रज्वलित हो रहा है क्रोधित हो रहा है ।।१३। जिस प्रकार हाथीके शरीरपर लगाई हुई चमड़ाको कोमल करनेवाली औपधि कुछ काम नहीं करती उसी प्रकार स्वभावसे ही कठोर रहनेवाले इस बाहुबलीके विषयमें साम उपायका प्रयोग करना भी कुछ काम नहीं देगा ।।१४।। जो मेरी आज्ञासे विमुख हैं, जिन्होंने राज्यभोग छोड़ दिये हैं और जो वनमें जाने के लिये उन्मुख हैं ऐसे बाकी समस्त राजकुमारोंने इसका अभिप्राय प्रायः प्रकट ही कर दिया है ।।१५।। यद्यपि यह सब है तथापि फिर भी कोमल वचनोंके द्वारा उसकी परीक्षा करेंगे। यदि ऐसा करनेपर भी नम्रीभूत नहीं हुआ तो फिर आगे क्या करना चाहिये इसका विचार करना चाहिये ।।१६॥ भाईपनेके कपटसे जिसके अन्तरङ्गमें विकार छिपा हुआ है और जिसका कोई प्रतिकार नहीं है ऐसा यह बाहबली घरके भीतर उठी हई अग्नि के समान समस्त कुलको भस्म कर देगा ॥१७॥ जिस प्रकार वक्षोंकी शाखाओंके अग्रभाग की रगड़से उत्पन्न हुई अग्नि पर्वतका विघात करनेवाली होती है उसी प्रकार भाई आदि अन्तरङ्ग प्रकृतिसे उत्पन्न हुआ प्रकोप राजाका विघात करनेवाला होता है ।।१८।। यह बलवान् बाहुबली इस समय प्रतिकूलताको प्राप्त हो रहा है इसलिये इसका शीघ्र ही प्रतिकार करना चाहिये क्योंकि क्रूर ग्रहके समान इसके शान्त हो जानेपर ही मुझे शान्ति हो सकती है ॥१९॥ ऐसा निश्चय कर चक्रवर्तीने कार्यको जाननेवाले मन्त्र करने में चतुर तथा निःसृष्टार्थतासे सहित
१ भेदः । 'अन्तरमवकाशावधि परिधानान्तद्धि भेदतादर्थ्य' इत्यभिधानात् । २ सामान्यं कृत्वा । ३ जालैः । 'आनायं पंसि जालं स्यात्' इत्यभिधानात् । ४ यज्ञाग्निः । ५ कार्यकारी न । ६ त्वचे हितम् । ७ मम शासनम् । ८ वनाभिमुखैः । अभिप्रायः। १० अन्तर्राविकारः। ११ गहं गोत्रं च । १२ स्ववर्गे जातः । १३ असकृत् सम्पादितप्रयोजनतया ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org