________________
चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व
१६७ सिंहा इव नसिंहास्ते तस्थुगिरिगुहाश्रयाः। जिनोक्त्यन गतः स्वान्तः अनुद्विग्नः समाहिताः ॥१८३॥ पाकसत्त्व 'शताकीर्णा वनभूमि भयानकाम् । तेऽध्यवात्सुस्त मिनासु निशासु ध्यानमास्थिताः ॥१८४॥ न्यषेवन्त वनोद्देशान् निषेव्यान्वनदन्तिभिः । ते तद्दन्ताननिभिन्नतरुस्थपुटितान्तरान् ॥१८॥ वनेषु वनमातङगबृहितप्रतिनादिनीः। दरीस्तेऽध्यष रारुष्टः अाक्रान्ताः करिशत्रुभि:१० ॥१८६॥ स्वाध्याययोगसंसक्ता न स्वपन्ति स्म रात्रिषु । सूत्रार्थभावनोद्युक्ता जागरूका:११ सदा यमी ॥१८७॥ पल्याकेन निषण्णास्ते वीरासनजुषोऽथया । शयानावैकपार्वेन शर्वरीरत्यवायन्१३ ॥१८॥ त्यक्तोपधिभरा धीरा व्युत्सृष्टाङगा निरम्बराः । नैष्किञ्चन्यविशुद्धास्ते मुक्तिमार्गममार्गयन् ॥१८६॥ निर्व्यापेक्षा निराकाडाक्षा वायुवीथ्यनुगामिनः" । व्यहरन् वसुधामेनां सग्रामनगराकराम् ॥१९॥ विहरन्तो महीं कृत्स्ना ते कस्थायनभिद्रुहः । मातृकल्पा दयालुत्वात्पुत्रकल्पेषु देहिषु ॥१६॥ जीवाजीवविभागज्ञा ज्ञानोद्योतस्फुरदृशः । सावधं परिजहू स्ते प्रासुकावसथाशनाः६ ॥१९२॥ स्याद्यत्किञ्चिच्च सावद्य तत्सर्वं त्रिविधेन ते । रत्नत्रितयशुद्ध्यर्थ यावज्जीवमवर्जयन् ॥१६३॥
त्रसान हरितकायांश्च पृथिव्यप्पवनानलान । जीवकायानपायेभ्यस्ते स्म रक्षन्ति यत्नतः॥१६४॥ सिंहके समान निर्भय, सब पुरुषोंमें श्रेष्ठ और पर्वतोंकी गुफाओंमें ठहरनेवाले वे मुनिराज जिनेन्द्रदेवके उपदेशके अनुसार चलनेवाले खेदरहित चित्तसे शान्त होकर निवास करते थे ॥१८३॥ वे मुनिराज अंधेरी रातोंके समय सैकड़ों दुष्ट जीवोंसे भरी हुई भयंकर वनकी भूमियोंमें ध्यान
र निवास करते थे ॥१८४॥ जो जंगली हाथियोंके द्वारा सेवन करने योग्य है तथा जिनके मध्यभाग हाथियोंके दाँतोंके अग्रभागसे टूटे हुए वृक्षोंसे ऊंचे नीचे हो रहे हैं ऐसे वनके प्रदेशोम वे महामुनि निवास करते थे ॥१८५।। जिनमें जंगली हाथियोंकी गर्जनाकी प्रतिध्वनि हो रही है और उस प्रतिध्वनिसे कुपित हुए सिंहोंसे जो भर रही हैं ऐसी वनकी गुफाओंमें वे मुनि निवास करते थे ।।१८६।। वे मुनिराज स्वाध्याय और ध्यानमें आसक्त होकर रात्रियोंमें भी नहीं सोते थे, किन्तु सूत्रों के अर्थके चिन्तवनमें तत्पर होकर सदा जागते रहते थे ।।१८७॥ वे मुनिराज पर्यडकासनसे बैठकर, वीरासनसे बैठकर अथवा एक करवटसे ही सोकर रात्रियाँ बिता देते थे ।।१८८। जिन्होंने परिग्रहका भार छोड़ दिया है, शरीरसे ममत्व दूर कर दिया है, जो वस्त्ररहित हैं और परिग्रहत्यागसे जो अत्यन्त विशुद्ध हैं ऐसे वे धोरवीर मुनि मोक्षका मार्ग ही खोजते रहते थे ॥१८९।। किसीकी अपेक्षा न करनेवाले, आकांक्षाओंसे रहित और आकाशकी तरह निर्लेप वे मुनिराज गाँव और नगरोंके समूहसे भरी हुई इस पृथिवीपर विहार करते थे ।।१९०॥ समस्त पृथिवीपर विहार करते हुए और किसी भी जीवसे द्रोह नहीं करते हुए वे मुनि दयालु होनेसे समस्त प्राणियोंको पुत्रके तुल्य मानते थे और उनके साथ माताके समान व्यवहार करते थे ॥१९१।। वे जीव और अजीवके विभाग को जाननेवाले थे, ज्ञानके प्रकाशसे उनके नेत्र देदीप्यमान हो रहे थे अथवा ज्ञानका प्रकाश ही उनका स्फुरायमान नेत्र था, वे प्रासुक अर्थात् जीवरहित स्थानमें ही निवास करते थे और उनका भोजन भी प्रासुक ही था, इस प्रकार उन्होंने समस्त सावध भोगका परिहार कर दिया था ॥१९२।। उन मुनियोंने रत्नत्रयकी विशुद्धिके लिये, संसारमें जितने सावध (पापारम्भसहित) कार्य हैं उनका जीवन पर्यन्तके लिये त्याग कर दिया था ॥१९३॥ वे त्रसकाय, वनस्पति
१ पुरुषोठाः । २ अखेदितः। ३ क्रूरमग । ४ भयंकराम्। ५ निवसन्ति स्म । ६ अन्धकारवतीषु 'तमिस्रा तामसी रात्रि' रित्यभिधानात् । ७ आश्रिताः । ८ निम्नोन्नतमध्यान् । ६ अधिवसन्ति स्म । १० सिंहैः। ११ जागरणशीलाः। १२ वा। १३ नन्ति स्म। १४ वायुवन्निःपरिग्रहा इत्यर्थः । १५ अपातुकाः । १६ निरवद्यान्तसाहारा: । १७ अपसार्य ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org