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महापुराणम् सर्वोपविधिनिर्मुक्ता युक्ता धर्मे जिनोदिते । नैच्छन् बालाग्रमानं च द्विधाम्नातं परिग्रहम् ॥१७२॥ निर्मूस्तेि स्वदेहेऽपि धर्मवद्मनि सुस्थिताः । सन्तोषभावनापास्ततृष्णाः सन्तो विहिरें ॥१७३॥ वसन्ति स्मानिकेतास्ते यत्रास्तं 'भानुमानितः । तत्रैकत्र क्वचिद्देशे नैस्सङग्यं परमास्थिताः ॥१७४॥ विविक्सैकान्तसेधित्वाद१० ग्रामेष्वेकाहवासिनः । पुरेष्वपि न पञ्चाहात्परं तस्थुन पर्षयः ॥१७५॥ शून्यागारस्मशानादिविविक्तालयगोचराः१३ । ते वीरवसतीभैजुः उज्झिताः सप्तभिर्भयः ॥१७६॥ तेऽभ्यनन्दन्महासत्वाः पाकसत्वैरधिष्ठिताः। गिर्यग्रकन्दरारण्यवसतोः प्रतिवासरम् ॥१७७॥ सिंहक्षवृकशार्दूलनरक्ष्वादि"निषेविते । बनान्ते ते वसन्ति स्म तदारसितभीषणे" ॥१७॥ स्फुरत्पुरुषशार्दूलजितप्रतिनिःस्वनः। प्रागुञ्जत्पर्वतप्रान्ते१६ ते स्म तिष्ठन्त्यसाध्वसाः॥१७६॥ कण्ठीरवकिशोराणां" कठोरैः कण्ठनिस्वनैः । प्रोन्नादिनि वने ते स्म निवसन्त्यस्तभीतयः ॥१८॥ नृत्यत्कबन्धपर्यन्त सञ्चरडाकिनीगणाः । प्रबद्धकौशिक ध्वाननिरुद्धो पान्तकाननाः ॥१८१॥ २३शिवानाम शिवैनिः आरुद्धाखिलदिङमुखाः। महापितृवनोद्देशा निशास्वभिः सिविर ॥१२॥
मुनि जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहे हुए मोक्षमार्गकी आराधना करते थे ॥१७१।। सब प्रकार के परिग्रहसे रहित होकर जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहे हुए धर्मका आचरण करते हुए वे राजकुमार बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारके कहे हए परिग्रहोंमेंसे बालकी नोकके बराबर भी किसी परिग्रहकी चाह नहीं करते थे ॥१७२॥ जिन्हें अपने शरीर में भी ममत्व नहीं है, जो धर्मके मार्ग स्थित हैं और संतोषकी भावनासे जिन्होंने तृष्णाको दूर कर दिया है ऐरो वे उत्तम मनिराज सब जगह विहार करते थे ।।१७३।। परिग्रह-त्याग व्रतको उत्कृष्ट रूपसे पालन करनेवाले वे गृहरहित मुनिराज जहाँ सूर्य डूब जाता था वहीं किसी एक स्थानमें ठहर जाते थे ॥१७४।। वे राजर्षि एकान्त और पवित्र स्थानमें रहना पसन्द करते थे इसलिये गाँवोंमें एक दिन रहते थे और नगरोंमें पाँच दिनसे अधिक नहीं रहते थे ॥१७५॥ वे मुनि सात भयोंसे रहित होकर शुन्यगह अथवा श्मशान आदि एकान्त-स्थानोंमें वीरताके साथ निवास करते थे ।। १७६।। वे महाबलवान् राजकुमार सिंह आदि दुष्ट जीवोंसे भरी हुई पर्वतोंकी गुफाओं और जंगलों में ही प्रतिदिन निवास करना अच्छा समझते थे ॥१७७।। सिंह, रीछ, भेड़िया, व्याघ, चीता आदिसे भरे हुए और उन्हीक शब्दोस भयंकर वनके बीचम व मनिराज निवार
वारों ओर फैलते हए व्याघकी गर्जनाकी प्रतिध्वनियोंसे गंजते हए पर्वतके किनारोंपर वे मुनि निर्भय होकर निवास करते थे ॥१७९॥ सिंहोंके बच्चोंकी कठोर कंठगर्जनासे शब्दायमान वनमें मुनिराज भयरहित होकर निवास करते थे ॥१८०॥ जहाँ नाचते हुए शिररहित धड़ोंके समीप डाकिनियों के समूह फिर रहे हैं, जिनके समीपके वन उल्लुओंके प्रचण्ड शब्दोंसे भर रहे हैं और जहां शृगालोंके अमङ्गलरूप शब्दोंसे सब दिशाएं व्याप्त हो रही हैं ऐसी बड़ी बड़ी श्मशानभूमियोंमें रात्रिके समय वे मनिराज निवास करते थे ॥१८१-१८२।।।
१ स्थिता प०, ल० । २ बाहयाभ्यन्तररूपेण द्विधा प्रोक्तम् । ३ निर्मोहाः । ४ विहरन्ति स्म । ५ अनगाराः । ६ आदित्यः । ७ प्रायाः । ८ क्वचिदनियतप्रदेशे । ६ आथिताः। १० विशुद्धविजनप्रदेशेष स्थातुं प्रियत्वादिति भावः । ११ एकदिवसबासिनः । १२ निवसन्ति स्म । १३ एकान्तप्रदेशो गोचरविषयो येषां ते । १४ ऋक्ष-भल्लूक-बृक-ईहामृगशार्दूलद्वीपितरक्षुमगादि। १५ तेषां सिंहादीनाम् आरावैर्भयङकरे। १६ ध्वनत्पर्वतसानुमध्य। १७ सिंहशावानाम् । १८ कठिनैः प०, ल०, द० । १६ ध्वनि कुर्वति । २० समीप । २१ प्रचण्ड ल०, द० । २२ कृतघुकनिनादव्याप्त । २३ जम्बनानाम् । २४ अमङगलैः । २५ तपोधनैः । २६ सेव्यन्ते स्म ।
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