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चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व
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मनो त्रियामास स्थगितास्ते हिमोच्चयः । प्रवारित 'रिवाङ्गः स्वंर्धीराः स्वैरमशेरत ॥ १६० ॥ "त्रिकालविषयं योगमास्थायैव दुरुद्वहम् । सुचिरं धारयन्ति स्म धीरास्ते धृतियोगतः ॥ १६१॥ दधानास्ते तपस्तापमन्तर्दीप्तं दुरासदम् । रेजुस्तरङ गितैरङ्गैः प्रायोऽनु कृतवार्द्धयः ॥१६२॥ ते स्वभक्तोज्झितं भूयो नच्छन् भोगपरिच्छदम् । निर्भुक्तमाल्यनिःसारं मन्यमाना मनीषिणः ॥ १६३ ॥ फेनोमि हिमसन्ध्याभ्रचलं जीवितमङगिनाम् । मन्वाना दृढमासक्ति भेजुस्ते पथि शाश्वते ॥ १६४॥ संसारावासनिर्विण्णा गृहावासाद्विनिःसृताः । जैने मार्गे विमुक्त्यङगे ते परां धृतिमादधुः ॥ १६५ ॥ इतोऽन्यदुत्तरं नास्तीत्याख्ठदृढभावनाः । तेऽमी मनोवचः कायैः श्रद्दधुर्गुरुशासनम् ॥१६६॥
रक्ता जिनप्रोक्ते सुक्ते धर्मे सनातने । उत्तिष्ठन्ते स्म मुक्त्यर्थं बद्धकक्ष्या मुमुक्षवः ॥१६७॥ संवेगजनितश्रद्धाः शुद्धे वत्र्त्मन्यनुत्तरे । दुरायां भावयामासुस्ते महाव्रतभावनाम् ॥१६८॥ श्रहंसा सत्यमस्त्येयं ब्रह्मचर्यं विमुक्तताम् । राज्यभोजनषष्ठानि व्रतान्येतान्यभावयन् ॥१६६॥ यावज्जीवं व्रतेष्वेषु ते दृढीकृतसगङराः । त्रिविधेन प्रतिक्रान्तदोषाः शुद्धि परां दधुः ॥ १७० ॥ सर्वारम्भविनिर्मुक्ता निर्मला " निष्परिग्रहाः । मार्गमाराधयञ्जनं व्युत्सृष्टतनुयष्टयः ॥ १७१ ॥
और धैर्यरूपी कवचसे ढके हुए अंगों से शीतल पवनको सहन करते थे ।। १५९ ।। शीतऋतुकी रात्रियों बर्फ के समूहसे ढके हुए वे धीर वीर मुनिराज स्वतन्त्रतापूर्वक इस प्रकार शयन करते थे मानो उनके अंग वस्त्रसे ही ढंके हों ।। १६० ।। इस प्रकार वे धीर वीर मुनि तीनों कालसम्बन्धी कठिन योग लेकर अपने धैर्यगुणके योगसे उन्हें चिर कालतक धारण करते थे ॥१६१॥ अन्तरङ्गमें देदीप्यमान और अतिशय कठिन तपके तेजको धारण करते हुए वे मुनि तरङ्गोंके समान अपने अङ्गोंसे ऐसे जान पड़ते थे मानो समुद्रका ही अनुकरण कर रहे हों ॥ १६२॥ वे बुद्धिमान् अपने द्वारा उपभोग कर छोड़ी हुई भोगसामग्रीको भोग में आई हुई मालाके समान सारहीन मानते हुए फिर उसकी इच्छा नहीं करते थे || १६३॥ वे प्राणियों के जीवनको फेन, ओस अथवा संध्याकालके वादलों के समान चञ्चल मानते हुए अविनाशी मोक्षमार्ग में दृढ़ता के साथ आसक्ति प्राप्त हुए थे || १६४ || संसार के निवाससे विरक्त हुए और घरके आवास से छूटे हुए वे मुनिराज मोक्षके कारणभूत जिनेन्द्रदेवके मार्ग में परम संतोष धारण करते थे ।। १६५ ।। इससे बढ़कर और कोई शासन नहीं है इस प्रकारकी मजबूत भावनाएं जिन्हें प्राप्त हो रही हैं ऐसे वे राजपि मन वचन कायसे भगवान् के शासनका श्रद्धान करते थे ॥ १६६ ॥ जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए और अनादिसे चले आये यथार्थ जैनधर्म में अनुरक्त हुए वे मोक्षाभिलाषी मुनिराज मोक्षके लिये कमर कसकर खड़े हुए थे ।। १६७ || संवेग होनेसे जिन्हें शुद्ध और सर्वश्रेष्ठ मोक्षमार्ग में श्रद्धान उत्पन्न हुआ है ऐसे वे मुनि कठिनाईसे प्राप्त होने योग्य महाव्रतकी भावनाओं का निरन्तर चितवन किया करते थे ॥ १६८ ॥ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्याग और रात्रिभोजनत्याग इन छह महाव्रतों का वे निरन्तर पालन करते थे ।।१६९ ।। जिन्होंने ऊपर कहे हुए छह व्रतोंकी जीवनपर्यन्तके लिये दृढप्रतिज्ञा धारण की है और मन, वचन तथा कायसे उन व्रतोंके समस्त दोष दूर कर दिये हैं ऐसे वे मुनिराज परम विशुद्धिको धारण कर रहे थे || १७० ।। जिन्होंने सब प्रकार के आरम्भ छोड़ दिये हैं, जो ममता रहित हैं, परिग्रहरहित हैं और शरीररूप लकड़ी से भी जिन्होंने ममत्व छोड़ दिया है ऐसे वे
१ हिमानीषु ल०, प० । हेमन्तसम्बन्धिनीषु । २ आच्छादिताः । ३ हिमोच्चयस्थगितान्तत्वात् प्रावरणान्वितैरिव । ४ प्रतिज्ञां कृत्वा । ५ गुरुशासनात् । ६ अधिकम् । ७ निःपरिग्रहताम् । ८दृढ़ीकृतप्रतिज्ञाः । मनोवाक्कायेन । १० प्रतिक्रमणरूपेण निरस्त । ११ निर्ममा ल०, इ० अ०, स०, प०, ५० ।
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