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चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व
ज्ञात्वा सूत्रकृतं सूक्तं निखिलं सूत्रतोऽर्थतः । धर्मक्रियासमाधाने ते दधुः सूत्रधारताम् ॥१३६॥ स्थानाध्ययन ेमध्यायशतैर्गम्भीरमब्धिवत् । विगाह्य तत्त्वरत्नानाम् अयुस्ते भेदमञ्जसा ॥ १३७॥ समवायाख्यमङ्गं ते समधीत्य सुमेधसः । द्रव्यादिविषयं सम्यक् समवाय' मभुत्सत ॥१३८॥ स्वभ्यस्तात्पञ्चमादङ्गाद् व्याख्याप्रज्ञप्ति संज्ञितात् । साध्ववादीधरन् ' धीराः प्रश्नार्थान् विविधानमी १३६ ज्ञातृ ' धर्मकथां सम्यक् बुद्ध्वा बोद्धृनबोधयन् । धर्म्यं कथामसंमोहात्ते यथोक्तं महर्षिणा ॥ १४० ॥ तेऽधीत्योपासकाध्यायमङगं सप्तममूजितम् । निखिलं श्रावकाचारं श्रोतृभ्यः समुपादिशन् ॥ १४१ ॥ तथान्तकृद्दशादङ्गात् मुनीनन्तकृतो दश । तीर्थ प्रति विदामासुः सोढा सोपसर्गकान् ॥ १४२ अनुतर विमानोपपादिकान्दश तादृशान् । शमिनो नवमादङ्गाद् विदाञ्चक्रुविदाम्बराः ॥ १४३ ॥ प्रश्नव्याकरणात्प्रश्नमुपादाय शरीरिणाम् । सुखदुःखादिसम्प्राप्ति व्याचक्रुस्ते समाहिताः ॥ १४४ ॥ विपाक सूत्रनिर्ज्ञातसदसत्कर्मपक्तयः । बद्धकक्षास्तदुच्छित्तौ तपश्चक्रुरतन्द्रिताः ॥ १४५ ॥ दृष्टिवादेन निर्ज्ञातदृष्टिभेदा जिनागमे । ते तेनुः परमां भक्ति परं संवेगमाश्रिताः ॥ १४६ ॥ तदन्तर्गत" निःशेषश्रुततत्त्वावधारिणः । चतुर्दशमहाविद्यास्थानान्यध्यैषत क्रमात् ॥ १४७॥
द्वारा मुनियोंका समस्त आचरण जान लिया था इसीलिये वे अतिचाररहित चर्याकी विशुद्धता को प्राप्त हुए थे ।। १३५ || वे शब्द और अर्थसहित समस्त सूत्रकृतांगको जानकर धर्मक्रियाओं के धारण करनेमें सूत्रधारपना अर्थात् मुख्यताको धारण कर रहे थे ।। १३६ ।। जो सैकड़ों अव्यावोंसे समुद्र के समान गम्भीर है ऐसे स्थानाध्ययन नामके तीसरे अंगका अध्ययन कर उन्होंने तत्त्वरूपी रत्नोंके भेद शीघ्र ही जान लिये थे ।। १३७ || समीचीन बुद्धिको धारण करनेवाले उन राजकुमारोंने समवाय नामके चौथे अंगका अच्छी तरह अध्ययन कर द्रव्य आदिके समह को जान लिया था ।। १३८|| अच्छी तरह अभ्यास किये हुए व्याख्याप्रज्ञप्ति नामके पाँचवें अङ्गसे उन वीर-वीर राजकुमारोंते अनेक प्रकारके प्रश्न-उत्तर जान लिये थे ||१३९॥ वे धर्म-कथा नासके छठवें अंगको जानकर और उसका अच्छी तरह अवगम कर महर्षि भगवान् वृषभदेव के द्वारा कही हुई धर्मकथाएं अज्ञानी लोगोंको बिना किसी त्रुटिके ठीक-ठीक बतलाते थे ।। १४० ।। अतिशय श्रेष्ठ उपासकाध्ययन नामके सातवें अङ्गका अध्ययन कर श्रोताओं के लिये समस्त श्रावकाचारका उपदेश दिया था ।। १४१ ।। उन्होंने अन्तःकृत नामके दशवें असे प्रत्येक तीर्थकरके तीर्थ में असहय उपसर्गोको जीतकर मुक्त होनेवाले दश अन्तःकृत मुनियों का वृत्तान्त जान लिया था ।। १४२ || जाननेवालोंमें श्रेष्ठ उन राजकुमारोंने अनुत्तर विमा
पपादिक नामके नौवें असे प्रत्येक तीर्थ करके तीर्थ में असहय उपसर्ग जीतकर अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होनेवाले दश दश मुनियों का हाल जान लिया था ।। १४३ || वे स्थिर चित्तवाले मुनिराज प्रश्नव्याकरण नामके दशवें असे प्रश्न समझकर जीवोंके सुख-दुःख आदिका वर्णन करने लगे || १४४ || विपाकसूत्र नामके ग्यारहवें असे जिन्होंने कर्मोंकी शुभ-अशुभ समस्त प्रकृतियाँ जान ली हैं ऐसे वे मुनि कर्मोंका नाश करनेके लिये तत्पर हो प्रमाद छोड़कर तीव्र तपश्चरण करते थे ।। १४५ ।। दृष्टिवाद नामके बारहवें अङ्गसे जिन्होंने समस्त दृष्टिके भेद जान लिये हैं ऐसे वे राजकुमार परम संवेगको प्राप्त होकर जैनशास्त्रों में उत्कृष्ट भक्ति करने लगे थे ।। १४६ ।। उस बारहवें अङ्गके अन्तर्गत समस्त श्रुतज्ञानके रहस्यका निश्चय करनेवाले उन मुनियोंने क्रमसे चौदह महा विद्याओंके स्थान अर्थात् चौदह पूर्वोका भी अध्ययन
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१ अङ्गम् । २ अङ्गम् । ३ समूहम् । 'समवायश्चयो गण' इत्यभिधानात् । ४ अवधारयन्ति स्म । ५ ज्ञात्वा ल० द० । ६ यथोक्तां ल० द० । ७ संसारविनाशकारिणः । ८ दश प्रकारान् । प्रवर्तनकालमुद्दिश्य | १० तदुच्छित्यै अ०, ३०, स० । ११ द्वादशाङगान्तर्गत ।
तीर्थडकर
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