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चतुस्प्रिंशत्तम पर्व
इति निर्धार्य कार्यज्ञान् कार्ययुक्तौ विविक्तधीः । प्राहिणोत्स निसृष्टार्थान्' दूताननु जसन्निधिम् ॥८६॥ गत्वा च ते यथोद्देशं दृष्ट्वा तांस्तान्यथोचितम् । जगुः सन्देशमीशस्य तेभ्यो दूता यथास्थितम् ॥१०॥ अथ ते सह सम्भूय कृतकार्य निवेदनात् । दूतानित्यूचुरारुढप्रभुत्वमदकर्कशाः ॥१॥ यदुक्तमादिराजन तत्सत्यं नोऽभिसम्मतम् । गुरोरसन्निधौ पूज्यो ज्यायान्भ्राताऽनुजैरिति ॥२॥ प्रत्यक्षो गरुरस्माकं प्रतपत्यष विश्वदृक् । स नः प्रमाणमैश्वयं तद्वितीर्णमिदं हि नः ॥१३॥ तदत्र गुरुपादाज्ञा तन्त्रा न स्वरिणो वयम् । न देयं भरतेशन नादेयमिह किञ्चन ॥४॥ यत्तु नः संविभागार्थम् इदमामन्त्रण कृतम् । चक्रिणा तेन सुप्रीता प्रीणाश्च वयमागलात् ॥५॥ इति सत्कृत्य तान्दूतान सन्मान : प्रभु वत्प्रभौ । विहितोपायनाः३० सद्यः प्रतिलेखैर्व्यसर्जयन् ॥६॥ दूतसात्कृतसन्माना:१ प्रभुसात्कृतवीचिकाः२ । गुरुसात्कृत्य तत्कार्य प्रापुस्ते गुरुसन्निधिम् ॥१७॥ गत्वा च गुरुपद्राक्षः मितोचितपरिच्छदाः । महागिरिमिवोत्तुङगं कैलासशिखरालयम५॥१८॥ प्रणिपत्य विधानेन प्रज्य च यथाविधि । व्यजिज्ञपन्निदं वाक्यं कुमारा मारविद्विषम् ॥६॥ त्वत्तः स्मो लब्धजन्मानस्त्वत्तः प्राप्ताः परां श्रियम् । त्वत्प्रसादैषिणो देव त्वत्तो नान्यमुपास्महे ॥१०॥
उनकी कुटिलताकी परीक्षा करूँगा। इस प्रकार निश्चय कर कार्य करने में जिसकी बुद्धि कभी भी मोहित नहीं होती ऐसे चक्रवर्तीने कार्यके जाननेवाले निःसृष्टार्थ दूतोंको अपने भाइयों के समीप भेजा ।।८८-८९।। उन दूतोंने भरतके आज्ञानुसार जाकर उनके योग्यरीतिसे दर्शन किये और उनके लिये चक्रवर्तीका संदेश सुनाया ।।९०॥ तदनन्तर-प्राप्त हुए ऐश्वर्यके मद से जो कठोर हो रहे हैं ऐसे वे सब भाई दूतोंके द्वारा कार्यका निवेदन हो चुकनेपर परस्परमें मिलकर उनसे इस प्रकार वचन कहने लगे ॥९१।। कि जो आदिराजा भरतने कहा है वह सच है और हम लोगोंको स्वीकार है क्योंकि पिताके न होनेपर बड़ा भाई ही छोटे भाइयोंके द्वारा पूज्य होता है ॥९२॥ परन्तु समस्त संसारको जानने देखनेवाले हमारे पिता प्रत्यक्ष विराजमान हैं वे ही हमको प्रमाण है, यह हमारा ऐश्वर्य उन्हींका दिया हुआ है ।।९३।। इसलिये हम लोग इस विषयमें पिताजीके चरणकमलोंकी आज्ञाके आधीन हैं, स्वतन्त्र नहीं है। इस संसारमें हमें भरतेश्वरसे न तो कुछ लेना है और न कुछ देना है ।।९४॥ तथा चक्रवर्तीने हिस्सा देनेके लिये जो हम सबको आमन्त्रण दिया है अर्थात् वुलाया है उससे हम लोग बहुत संतुष्ट हए हैं और गले तक तप्त हो गये हैं ॥९५।। इस प्रकार राजाओंकी तरह योग्य सन्मानोंसे उन दूतों का सत्कार कर तथा भरतके लिये उपहार देकर और बदलेके पत्र लिखकर उन राजकुमारोंने दतोंको शीघ ही बिदा कर दिया ॥९६॥ इस प्रकार जिन्होंने दूतोंका सन्मान कर भरतके लिये योग्य उत्तर दिया है ऐसे वे सब राजकुमार, पूज्य पिताजीका दिया हुआ कार्य उन्हींको सौंपने के लिये उनके समीप पहुंचे ।।९७॥ जिनके पास परिमित तथा योग्य सामग्री है ऐसे उन राजकुमारोंने किसी महापर्वतके समान ऊंचे और कैलासकी शिखरपर विद्यमान पूज्य पिता भगवान् वृषभदेवके जाकर दर्शन किये ॥९८॥ उन राजकुमारोंने विधिपूर्वक प्रणाम किया, विधिपूर्वक पूजा की और फिर कामदेवको नष्ट करनेवाले भगवान्से नीचे लिखे वचन कहे ॥९॥ हे देव, हम लोगोंने आपसे ही जन्म पाया है, आपसे ही यह उत्कृष्ट विभति पाई है और अब भी आपकी प्रसन्नताकी इच्छा रखते हैं, हम लोग आपको छोड़कर और किसीकी
१ न्यस्तार्थान् । असकृत्सम्पादितप्रयोजनानित्यर्थः । २ कुमाराः । ३ अस्माकम् । ४ प्रकाशते । ५ प्रधानाः । ६ स्वेच्छाचारिणः' ७ सन्तोषिताः । ८ तृप्ता: ६ कन्धरपर्यन्तम् । १० कृतप्राभृताः । ११ दूतानामयत्तीकृत । १२ भरतायत्तीकृतसन्देशाः। १३ भरतकृतकार्यम् । १४ परिकराः । १५ कैलासशिखरमालयो यस्य । १६ आराधयामः ।
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