________________
महापुराणम् गोपायिताऽहमस्याद्रेः मध्यमं कूटमावसन् । स्वैरचारी चिरादद्य त्वयाऽस्मि परवान् विभो ॥४१॥ विद्धि मां विजया ख्यम् अमुं च गिरिमूजितम् । अन्योऽन्य संश्रयाद् आवाम् प्रलंघ्यावचलस्थिती ॥४२॥ देव दिग्विजयस्याद्ध विभजन्नेष सानुमान् । विजयार्द्धश्रुति धत्ते 'तात्स्थ्यात् तद्रूढयो वयम् ॥४३॥ आयुष्मन् युष्मदीयाज्ञां मूर्ना स्रजमिवोद्वहन् । पदातिनिविशेषोऽस्मि विज्ञाप्यं किमतः परम् ॥४४॥ इति वस्तथोत्थाय "शिवस्तीर्थाम्बुभिः प्रभुम् । 'सोऽभ्यषिञ्चत् सरैः साद्धं स्वं नियोगं निवेदयन् ॥४५॥ तदा प्रणेदुरामन्द्रम् प्रानकाः पथि वार्मुचाम् । विचेरुर्मरुतो मन्दम् प्राधूतवनवीययः ॥४६॥ ननु तुः सुरनर्तक्यः सलीलानतितवः। जगुश्च मङगलान्यस्य जयशंसोनि किन्नराः ॥४७॥ कृताभिषेकमेनं च शुभनेपथ्यधारिणम् । युयोज रत्नलाभेन लम्भयन् स जयाशिषः ॥४८॥ स तस्म रत्नभृङगारं सितमातपवारणम् । प्रकीर्णक युगं दिव्यं ददौ च हरिविष्टरम् ॥४६॥ इति प्रसाधितस्तेन वचोभिः सानुवर्तनः। प्रसादतरलां दृष्टिं तत्र व्यापारयत् प्रभुः ॥५०॥ विजितश्च सानुशं प्रभुणा कृतसत्क्रियः । भूत्यत्वं प्रतिपद्यास्य स्वमोकः प्रत्यगात् सुरः ॥५॥
विजयाद्धे जिते कृत्स्नं जितं दक्षिणभारतम् । मन्वानो निधिराट् तच्च चक्ररत्नमपूजयत् ॥५२॥ चक्रवर्तीने भी उसे सत्कारपूर्वक उत्तम आसनपर बैठाया ॥४०॥ भरतसे उस देवने कहा कि मैं इस पर्वतका रक्षक हूँ और इस पर्वतके बीचके शिखरपर रहता हूँ। हे प्रभो, मैं आजतक अपनी इच्छानुसार रहता था-स्वतन्त्र था परन्तु आज बहुत दिनमें आपके आधीन हुआ हूँ ॥४१॥ मझे तथा इस ऊँचे पर्वतको आप विजया/ जानिये अर्थात हम दोनोंका नाम विजया है और हम दोनों ही परस्पर एक दूसरेके आश्रयसे अलंन्य तथा निश्चल स्थितिसे युक्त हैं ॥४२॥ हे देव, यह पर्वत दिग्विजयका आधा आधा विभाग करता है इसलिये ही यह विजयार्ध नामको धारण करता है और उसपर रहनेसे मेरा भी विजयार्ध नाम रूढ़ हो गया है ॥४३॥ हे आयुष्मन्, मैं आपकी आज्ञाको मालाके समान मस्तकपर धारण करता हूँ और आपके पैदल चलनेवाले एक सैनिकके समान ही हूँ, इसके सिवाय में और क्या प्रार्थना करूँ ? ॥४४॥ इस प्रकार कहता हुआ और दिग्विजय करनेवाले चक्रवर्तियोंका अभिषेक करना मेरा काम है' इस तरह अपने नियोगकी सूचना करता हुआ वह देव उठा और अनेक देवोंके साथ साथ कल्याण करनेवाले तीर्थजलसे सम्राट भरतका अभिषेक करने लगा ।।४५।। उस समय आकाशमें गंभीर शब्द करते हुए नगाड़े बज रहे थे और वन-गलियोंको कम्पित करता हुआ वायु धीरे धीरे बह रहा था ॥४६।। लीलापूर्वक भौंहोंको नचाती हुई नृत्य करनेवाली देवांगनाएँ नृत्य कर रही थीं
और किन्नर देव भरतकी विजयको सूचित करनेवाले मंगलगीत गा रहे थे ॥४७॥ तदनन्तर जिनका अभिषेक किया जा चुका है और जो सफेद वस्त्र धारण किये हुए हैं ऐसे भरतको विजय करनेवाला आशीर्वाद देते हुए उस देवने अनेक रत्नोंकी प्राप्तिसे युक्त किया अर्थात् अनेक रत्न भेंट किये ॥४८॥ उस देवने उनके लिये रत्नोंका भृङ्गार, सफेद छत्र, दो चमर और एक दव्य सिंहासन भी भेट किया था ॥४९॥ इस प्रकार ऊपर लिखे हुए सत्कारसे तथा विनयसहित वचनोंसे प्रसन्न हुए भरतने उस देवपर प्रसन्नतासे चंचल हुई अपनी दृष्टि डाली ॥५०॥ अनन्तर भरतने जिसका आदर-सत्कार किया है और 'जाओ' इस प्रकार आज्ञा देकर जिसे बिदा किया है ऐसा वह विजया देव उनका दासपना स्वीकार कर अपने स्थानपर वापिस चला गया ॥५१॥ विजयार्ध पर्वतके जीत लेनेपर समस्त दक्षिण भारत जीत लिया गया
१ रक्षिता। २ नाथवान् परवश इत्यर्थः । 'परवान्नाथवानपि' इत्यभिधानात् । ३ परस्परमाधाराधेयरूपसंश्रयात् । ४ तस्मिन् तिष्ठति इति तत्स्थ: तस्य भावः तात्स्थ्यम् तस्मात् । ५ विजयार्द्ध इति रूढयः । ६ पत्तिसदृशः । ७ मङगलैः । ८ विजयार्द्धकुमारः। चामरयुगलम् ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org