________________
१३८
महापुराणम्
ततः किञ्चित्पुरो गच्छन् सालमाद्यं व्यलोकयत् । निषधाद्रितटपधवपुषं रत्नभाजुषम् ॥८०॥ सुरदौवारिकारक्ष्यतत्प्रतोलीतलाश्रितान् । सोऽपश्यन्मङगलद्रव्यभेदांस्तत्राष्टधा स्थितान् ॥ ८१ ॥ ततोऽन्तः प्रविशन्वीक्ष्य द्वितयं नाट्यशालयोः । प्रीति प्राप परां चक्री शक्रस्त्रीवर्तनोचितम् ॥८२॥ स धूपघटयोर्युग्मं तत्र वीथ्युभयान्तयोः । सुगन्धीन्धनसन्दोहोद्गन्धिधूपं व्यलोकयत् ॥८३॥ कक्षान्तरे द्वितीयेऽस्मिन्नसौ वनचतुष्टयम् । निदध्यौ' विगलत्पुष्पैः कृतार्घमिव शाखिभिः ॥ ८४ ॥ प्रफुल्ल' वनमाशोकं साप्तपर्ण च चाम्पकम् । श्राम्र ेडितं वनं प्रेक्ष्य सोऽभूदान्र डितोत्सवः ॥८५॥ तत्र चैत्यद्रुमांस्तुङगान् जिनबिम्बैरधिष्ठितान् । पूजयामास लक्ष्मीवान् पूजिताभूसुरेशिनाम् ॥ ८६ ॥ तत्र किनरनारीणां गीतंरामन्द्रमूर्च्छनैः । लेभे परां धृतिं चक्री गायन्तीनां जिनोत्सवम् ॥८७॥ सुगन्धिपवनामोदनिःश्वासा कुसुम स्मिता । वनश्रीः कोकिलालापैः सञ्जजल्पेव चक्रिणा ॥ ८८ ॥ भृङ्गीसङगीतसम्मूर्च्छत् कोकिलानक निस्स्वनैः । श्रनङ्गविजयं जिष्णोर्वनानीवोदघोषयन् ॥5॥ त्रिजगज्जनता जत्रप्रवेशरभसोत्थितम् । तत्राशृणोन्महाघोषमपां घोषमिवोदधेः ॥ ६०॥ वनवेदीमथापश्यद् वनरुद्धावनेः परम् । वनराजीविलासिन्याः काञ्चीमिव कणन्मणिम् ॥१॥ तद्गोपुरावन क्रान्त्वा ध्वजरुद्धानि सुरान् । श्राजुहू षुमिवाऽपश्यन्महद्भूतंर्ध्वजांशुकैः ॥२ वन देखा ॥७९॥ वहाँसे कुछ आगे जाकर उन्होंने पहला कोट देखा जो कि निषध पर्वतके किनारे के साथ स्पर्धा कर रहा था और रत्नों की दीप्तिसे सुशोभित था ||८०|| देवरूप द्वारपाल जिसकी रक्षा कर रहे हैं ऐसे गोपुरद्वारके समीप रखे हुए आठ मङ्गलद्रव्य भी उन्होंने देखे ॥८१॥ तदनन्तर भीतर प्रवेश करते हुए चक्रवर्ती भरत इन्द्राणी के नृत्य करने के योग्य दोनों ओरकी दो नाट्यशालाओंको देखकर परम प्रीतिको प्राप्त हुए ।। ८२ ।। वहाँसे कुछ आगे चलकर मार्ग के दोनों ओर बगलमें रखे हुए तथा सुगन्धित ई धनके समूहके द्वारा जिनसे अत्यन्त सुगन्धित धूम निकल रहा है ऐसे दो धूपघट देखे || ८३ || इस दूसरी कक्षामें उन्होंने चार वन भी देखे जो कि झड़ते हुए फूलोंवाले वृक्षोंसे अर्घ देते हुए के समान जान पड़ते थे || ८४ ।। फूले हुए अशोक वृक्षोंका वन, सप्तपर्ण वृक्षोंका वन, चम्पक वृक्षोंका वन और आमोंका सुन्दर वन देखकर भरत महाराजका आनन्द भी दूना हो गया था ।। ८५ ।। श्रीमान् भरतने उन वनों में जिनप्रतिमाओं से अधिष्ठित और इन्द्र नरेन्द्र आदिके द्वारा पूजित बहुत ऊँचे चैत्यवृक्षोंकी भी पूजा की || ८६ ।। उन्हीं वनों में किन्नर जातिकी देवियाँ भगवान्का उत्सव गा रही थीं, उनके गंभीर तानवाले गीतों से चक्रवर्ती भरतने परम संतोष प्राप्त किया था ॥ ८७ ॥ सुगन्धित पवन ही जिसका सुगन्धिपूर्ण निःश्वास है और फूल ही जिसका मंद हास्य है ऐसी वह वनकी लक्ष्मी कोयलोंके मधुर शब्दों से ऐसी जान पड़ती थी मानो चक्रवर्ती के साथ वार्तालाप ही कर रही हो ॥ ८८ ॥ भूमरियों के संगीतसे मिले हुए कोकिलारूपी नगाड़ोंके शब्दोंसे वे वन ऐसे जान पड़ते थे मानो जिनेन्द्र भगवान् ने जो कामदेवको जीत लिया है उसीकी घोषणा कर रहे हों ॥। ८९ ।। वहाँपर तीनों लोकोंके जनसमूहके निरन्तर प्रवेश करनेकी उतावलीसे जो समुद्र के जलकी गर्जनाके समान बड़ा भारी कोलाहल हो रहा था उसे भी भरत महाराजने सुना था ।।९०।। तदनन्तर उन वनोंसे रुकी हुई पृथिवीके आगे उन्होंने वनपंक्तिरूपी विलासिनी स्त्रीकी मणिमयी मेखलाके समान मणियोंसे जड़ी हुई वनकी वेदी देखी ॥ ९१ ॥ वनवेदी के मुख्य द्वारकी भूमिको उल्लंघन कर चक्रवर्ती भरतने ध्वजाओंसे रुकी हुई पृथिवी देखी, वह पृथिवी उस समय ऐसी मालूम हो रही थी मानो वायुसे हिलते हुए ध्वजाओंके वस्त्रोंके द्वारा
१ ददर्श । २ प्रफुल्लवन - ल० । ३ आम्रेडितवनं ल० । आमूमिति स्तुतम् । ४ द्वित्रिगुणितोत्सवः । ५ जल्पति स्म । ६ संमिश्रीभवत् । ७ स्फुरद्रत्नाम् । ८ सुराट् ल, द० । ६ आह्वातुमिच्छम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org