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महापुराणम्
कस्याप्यकालचकेण' पतितव्यं विरोधिनः । रेणेव ग्रहेणाद्य यतश्चक्रेण वक्रितम् ॥११॥ अथवाद्यापि जेतव्यः पक्षः कोऽप्यस्ति चक्रिणः । चक्रस्खलनतः कैश्चिदित्थं तज्जैविकितम् ॥१२॥ सेनानीप्रमुखास्तावत् प्रभवे तन्न्यवेदयन् । तद्वार्ताऽऽकर्णनाच्चक्री किमप्यासीत्सविस्मयः ॥१३॥ अचिन्तयच्च किं नाम चक्रमप्रतिशासने । मयि स्थितेस्खलत्यद्य क्वचिदप्यस्खलद्गति ॥१४॥ सम्प्रधार्यमिदं तावदित्याहूय पुरोधसम् । धीरो धीरतरां वाचमित्युच्चैराजगी मनुः ॥१५॥ वदनोऽस्य मुखाम्भोजाद् व्यक्ताकूता सरस्वती । निर्ययौ सदलङकारा शम्फलीव जयश्रियः ॥१६॥ चक्रमाकान्तदिक्चक्रम् अरिचक्रभयडकरम् । कस्मानास्मत्पुरद्वारि क्रमते न्यक्कृतारुक ॥१७॥ विश्वदिग्विजय पूर्वदक्षिणापरवाद्धिषु । यदासीदस्खलद्वत्ति रूप्याद्रेश्च गुहाद्वये ॥१८॥ चकं तदधुना कस्मात् स्खलत्यस्मद्गृहाङगणे । प्रायोऽस्माभिविरुद्धेन भवितव्यं जिगोषणा ॥१६॥ किमसाध्यो द्विषत्कश्चिदस्त्यस्मद्भक्तिगोचरे । सनाभिः कोऽपि कि वाऽस्मान् द्वेष्टि दुष्टान्तराशयः ॥२० यः कोऽप्यकारणद्वेषी खलोऽस्मान्नाभिनन्दति । प्रायः स्खलन्ति चेतांसि महत्स्वपि दुरात्मनाम् ॥२१॥ विमत्सराणि चेतांसि महतां परवद्धिष । मत्सरीणि तु तान्येव क्षाणामन्यवृद्धिषु ॥२२॥ अथवा दुर्मदाविष्टः कश्चिदप्रणतोऽस्ति मे। स्ववर्यस्तन्मदोच्छित्य नूनं चक्रेण वक्रितम् ॥२३॥
आज यह चक्र करग्रहके समान वक्र हुआ है इसलिये अकालचक्रके समान किसी विरोधी शत्र पर अवश्य ही पड़ेगा ॥११॥ अथवा अव भी कोई चक्रवर्तीके जेतव्य पक्षमें हैं-जीतने योग्य शत्रु विद्यमान है इस प्रकार चक्रके रुक जानेसे चक्रके स्वरूपको जाननेवाले कितने ही लोग विचार कर रहे थे ।।१२।। सेनापति आदि प्रमख लोगोंने यह बात चक्रवर्तीसे कही और उसके सुनते ही वे कुछ आश्चर्य करने लगे ॥१३॥ वे विचार करने लगे कि जिसकी आज्ञा कहीं भी नहीं रुकती ऐसे मेरे रहते हुए भी, जिसकी गति कहीं भी नहीं रुकी ऐसा यह चक्ररत्न आज
रुक रहा है ! ।।१४। इस बातका विचार करना चाहिये यही सोचकर धीर वीर मन ने पुरोहितको बुलाया और उससे नीचे लिखे हुए बहुत ही गम्भीर बचन कहे ।।१५।। कहते हुए भरत महाराजके मुखकमलसे स्पष्ट अभिप्रायवाली और उत्तम उत्तम अलंकारोंरो सजी हुई जो वाणी निकल रही थी वह ऐसी जान पड़ती थी मानो विजयलक्ष्मीकी दूती ही हो ।।१६।। जिसने समस्त दिशाओंके समहपर आक्रमण किया है जो शत्रओंके समहके लिये भयंकर है और जिसने सूर्यकी किरणोंका भी तिरस्कार कर दिया है ऐसा यह चक्र मेरे ही नगरके द्वारमें क्यों नहीं आगे बढ़ रहा है-प्रवेश कर रहा है ? ||१७॥ जो समरत दिशाओंको विजय करने में पूर्व-दक्षिण और पश्चिम समुद्र में कहीं नहीं रुका, तथा जो विजयाकी दोनों गफाओंमें नहीं रुका वही चक्र आज मेरे घरके आंगन में क्यों रुक रहा है ? प्रायः मेरे साथ विरोध रखनेवाला कोई विजिगीषु (जीतकी इच्छा करनेवाला) ही होना चाहिय।।१८-१९॥वया मेरे उपभोगके योग्य क्षेत्र (राज्य) में ही कोई असाध्य शत्रु मौजूद है अथवा दुष्ट हृदयवाला मेरे गोत्र का ही कोई पुरुष मुझसे द्वेष करता है ॥२०॥ अथवा बिना कारण ही द्वेष करनेवाला कोई दुष्ट पुरुष मेरा अभिनन्दन नहीं कर रहा है-मेरी वृद्धि नहीं सह रहा है सो ठीक ही है क्योंकि दुष्ट पुरुषोंके हृदय प्रायः कर बड़े आदमियोपर भी बिगड़ जाते हैं ।।२१।। महापुरुषोंके हृदय दूसरोंकी वृद्धि होनेपर मात्सर्यसे रहित होते हैं परन्तु क्षुद्र पुरुषों के हृदय दूसरोंकी वृद्धि होनेपर ईर्ष्या सहित होते हैं ॥२२॥ अथवा दुष्ट अहंकारसे घिरा हुआ कोई मेरे ही घरका
१ अपमृत्युना । २ गन्तव्यम् मर्तव्यमित्यर्थः। ३ जेतव्यपक्षः ल०, द. । ४ चविणे। ५ विचार्यम् । ६ व्यक्ताभिप्राया। ७ कुट्टणी। ८ भुक्तिक्षेत्रे। ६ सपिण्डः । 'सपिण्डास्तु सनामयः' इत्यभिधानात् । नाभिसम्बन्धीत्यर्थः । १० आत्मवर्गे भवः ।
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