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चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व
खलूपेक्ष्य' लघीयानप्युच्छेद्यो लघु तादृशः । क्षुद्रो रेणुरिवाक्षिस्थो रु' जत्यरिरुपेक्षितः ॥२४॥ बलादुद्धरणीयो हि क्षोबीयानपि कण्टकः । अनुद्धृतः पदस्थोऽसौ भवेत्पीडाकरो भृशम् ॥२५॥ चक्रं नाम परं देवं रत्नानामिदमग्रिमम् । गतिस्खलनमेतस्य न विना कारणाद् भवेत् ॥ २६ ॥ ततो बाल्यमिदं कार्यं यच्चक्रेणार्य सूचितम् । सूचिते' खलु राज्याङगे विकृतिर्नाल्पकारणात् ॥२७॥ तदत्र कारणं चित्यं त्वया धीमन्निदन्तया' । श्रनिरूपित कार्याणां नेह नामुत्र सिद्धयः ॥ २८ ॥ त्वयी कार्यविज्ञानं तिष्ठते" दिव्यचक्षुषि । तमसां छेदने कोऽन्यः प्रभवेदंशुमालिनः ॥२६॥ निवेद्य कार्यमित्यस्मै देवज्ञाय " मिताक्षरैः । विरराम प्रभुः प्रायः प्रभवो मितभाषिणः ॥३०॥ ततः प्रसन्नगम्भीरपदालङकार कोमलाम् । भारतीं भरतेशस्य प्रबोधायेति सोऽब्रवीत् ॥३१॥ प्रस्ति माधुर्यमस्त्योजस्तदस्ति पदसौष्ठवम् । अस्त्यर्थानुगमोऽन्यत्कि यन्नास्ति त्वद्वचोमये ॥३२॥ शास्त्रज्ञा वयमेकान्तात् नाभिज्ञाः कार्ययुक्तिषु । शास्त्रप्रयोगवित् कोऽन्यस्त्वत्समो राजनीतिषु ॥३३॥ त्वमादिराजो राजषस्तद्विद्यास्त्व "दुपक्रमम् । तद्विदस्तत्प्रयुञ्जाना न जिहीमः कथं वयम् ॥३४॥
मनुष्य नम नहीं हो रहा है, जान पड़ता है यह चक्र उसीका अहंकार दूर करनेके लिये वक्र हो रहा है ।।२३।। शत्रु अत्यन्त छोटा भी हो तो भी उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये, द्वेष करने वाला छोटा होनेपर भी शीघ्र ही उच्छेद करने योग्य है क्योंकि आँखमें पड़ी हुई धूलिकी कणिका के समान उपेक्षा किया हुआ छोटा शत्रु भी पीड़ा देनेवाला हो जाता है ||२४|| कांटा यदि अत्यन्त छोटा हो तो भी उसे जबरदस्ती निकाल डालना चाहिये क्योंकि पैरमें लगा हुआ काँटा यदि निकाला नहीं जावेगा तो वह अत्यन्त दुःखका देनेवाला हो सकता है ॥२५॥ | यह चक्ररत्न उत्तम देवरूप है और रत्नोंमें मुख्य रत्न है इसकी गतिका स्खलन बिना किसी कारण के नहीं हो सकता है ||२६|| इसलिये हे आर्य इस चक्रने जो कार्य सूचित किया है वह कुछ छोटा नहीं है क्योंकि यह राज्यका उत्तम अङ्ग है इसमें किसी अल्पकारणसे विकार नहीं हो सकता है ||२७|| इसलिये हे बुद्धिमान् पुरोहित, आप इस चक्ररत्नके रुकने में क्या कारण है इसका अच्छी तरह विचार कीजिये क्योंकि बिना विचार किये हुए कार्योंकी सिद्धि न तो इस लोक में होती है और न परलोक हीमें होती है ||२८|| आप दिव्य नेत्र हैं इसलिये इस कार्य का ज्ञान आपमें ही रहता है अर्थात् आप ही चक्ररत्नके रुकनेका कारण जान सकते हैं क्योंकि अन्धकारको नष्ट करने में सूर्य के सिवाय और कौन समर्थ हो सकता है ? ॥ २९ ॥ इस प्रकार महाराज भरत थोड़े ही अक्षरोंके द्वारा इस निमित्तज्ञानीके लिये अपना कार्य निवेदन कर चुप हो रहे सो ठीक ही है क्योंकि प्रभु लोग प्रायः थोड़े ही बोलते हैं ||३०|| तदनन्तर निमित्तज्ञानी पुरोहित भरतेश्वरको समझाने के लिये प्रसन्न तथा गम्भीर पद और अलंकारोंसे कोमल वचन कहने लगा ||३१|| जो माधुर्य, जो ओज, जो पदोंका सुन्दर विन्यास और जो अर्थकी सरलता आपके वचनों में नहीं है वह क्या किसी दूसरी जगह है ? अर्थात् नहीं है ||३२|| हम लोग तो केवल शास्त्रको जाननेवाले हैं कार्य करनेकी युक्तियों में अभिज्ञ नहीं हैं परन्तु राजनीतिमें शास्त्रके प्रयोगको जाननेवाला आपके समान दूसरा कौन है ? अर्थात् कोई नहीं है ||३३|| आप राजाओं में प्रथम राजा हैं और राजाओं में ऋषिके समान श्रेष्ठ होने से राजर्षि हैं यह राजविद्या केवल आपसे ही उत्पन्न हुई है इसलिये उसे जाननेवाले हम लोग
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अतिशयने क्षुद्रः ।
१ नोपेक्षणीयः । २ अतिशयने लघुः । ३ शीघ्रम् । ४ पीडां करोति । ६ सुचिते । ७ चक्रे । ८ प्रतीयमानस्वरूपतया । ९ अविचारित । १० निश्चितं भवति । ११ नैमित्तिकाय । १२ व्यक्तं प०, ल० । १३ तव वचन-प्रपञ्चे । १४ राजविद्या: । १५ त्वदुपक्रमात् ल० । त्वया पूर्व प्रवर्तित कार्यविज्ञानम् ।
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