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महापुराणम् प्रशान्तमत्सराः शान्तास्त्वां नत्वा नम्रमौलयः । सोदर्याः सुखमेधतां त्वत्प्रसादाभिकाइक्षिणः ॥५६॥ इति शासति शास्त्रज्ञ पुरोधसि सुमेधसि । प्रतिपद्यापि तत्कार्य चक्री चुक्रोध तत्क्षणम् ॥५७॥ पारुष्टकलुषां दृष्टि क्षिपन्दिष्विव दिग्बलिम् । सधूमामिव कोपाग्नेः शिखां भृकुटिमुत्क्षिपन् ॥५८॥ भ्रातृभाण्डकृतामर्षविषवेगमिवोद्वमन् । वाक्छलेनों च्छलन् रोषाद् बभाषे परुषा गिरः ॥५६॥ कि किमात्थ दुरात्मानो भातरः प्रणतां न माम् । पश्य मद्दण्डचण्डोल्कापातात्तान् शल्कसात् कृतान् ॥६०॥ अदृष्टमश्रुतं कृत्यमिदं वैरमकारणम् । अवध्याः किल कुल्यत्वादिति तेषां मनीषितम् ॥६॥ यौवनोन्मादजस्तेषां भटवातोऽस्ति दुर्मदः । ज्वलच्चक्राभितापेन स्वेदस्तस्य प्रतिक्रिया ॥६२॥ अकरां' भोक्तुमिच्छन्ति गुरु दत्तामि मान्तके । तत्किए भटावलेपेन भुक्ति ते श्रावयन्तु मे ॥६३॥ प्रतिशय्यानिपातेन भुक्ति ते साधयन्तु वा । शितास्त्रकण्टकोत्सङगपतिताङगा रणाङ गणे ॥६४॥ क्व वयं जितजेतव्या भोक्तव्ये" सङगताः क्व ते । तथापि संविभागोऽस्तु तेषां मवन वर्तने ॥६॥
जलाते रहते हैं और वे ही लोग परस्परमें अनुकूल रहकर नेत्रोंके लिये अतिशय आनन्द रूप होते हैं ॥५५॥ इसलिये ये आपके भाई मात्सर्य छोड़कर शान्त हो मस्तक झुकाकर आपको नमस्कार करें और आपकी प्रसन्नताकी इच्छा रखते हुए सुखसे वृद्धिको प्राप्त होते रहें ।।५६।। इस प्रकार शास्त्रके जाननेवाले बुद्धिमान् पुरोहितके कह चुकनेपर चक्रवर्ती भरतने उसीके कहे अनुसार कार्य करना स्वीकार कर उसी क्षण क्रोध किया ॥५७।। जो क्रोधसे कलुषित हई अपनी दृष्टिको दिशाओंके लिये बलि देते हुएके समान सब दिशाओंमें फेंक रहे हैं, क्रोधरूपी अग्निकी धूमसहित शिखाके समान भृकुटियाँ ऊंची चढ़ा रहे हैं, भाईरूपी मूलधनपर किये हुए क्रोधरूपी विषके वेगको जो वचनोंके छलसे उगल रहे हैं और जो क्रोधसे उछल रहे हैं ऐसे महाराज भरत नीचे लिखे अनुसार कठोर वचन कहने लगे ॥५८-५९।। हे पुरोहित, क्या कहा ? क्या कहा ? वे दुष्ट भाई मुझे प्रणाम नहीं करते हैं, अच्छा तो तू उन्हें मेरे दण्ड रूपी प्रचण्ड उल्कापातसे टुकड़े किया हुआ देख ॥६०॥ उनका यह कार्य न तो कभी देखा गया है, न सुना गया है, उनका यह वैर बिना कारण ही किया हुआ है, उनका ख्याल है कि हम लोग एक कुलमें उत्पन्न होनेके कारण अवध्य हैं ॥६१॥ उन्हें यौवनके उन्मादसे उत्पन्न हआ योद्धा होनेका कठिन वायुरोग हो रहा है इसलिये जलते हुए चक्रके संतापसे पर ही उसका प्रतिकार-उपाय है ॥६२॥ वे लोग पूज्य पिताजीके द्वारा दी हुई पृथिवीको बिना कर दिये ही भोगना चाहते हैं परन्तु केवल योद्धापनेके अहंकारसे क्या होता है ? अब या तो वे लोगोंको सुनावें कि भरत ही इस पृथिवीका उपभोग करनेवाला है हम सब उसके आधीन हैं या युद्धके मैदान में तीक्ष्ण शस्त्ररूपी काँटोंके ऊपर जिनका शरीर पड़ा हुआ है ऐसे वे भाई प्रतिशय्या-दूसरी शय्या अर्थात् रणशय्यापर पड़कर उसका उपभोग प्राप्त करें। भावार्थ-जीतेजी उन्हें इस पृथिवीका उपभोग प्राप्त नहीं हो सकता ॥६३-६४॥ जिसने
समस्त लोगोंको जीत लिया है ऐसा कहाँ तो मैं. और मेरे उपभोग करने योग्य क्षेत्रमें स्थित कहाँ वे लोग ? तथापि मेरे आज्ञानुसार चलनेपर उनका भी विभाग (हिस्सा)
१'भाण्डं भषणमात्रेऽपि भाण्डमूला वणिग्धने । नदीमात्रे तुरङगाणां भूषणे भाजनेऽपि च । २ उत्पतन् । ३ वदसि । ४ खण्ड । ५ कुले भवाः कुल्यास्तेषां भावः तस्मात् । ६ वयं भटा इति गर्वः । ७ दुनिवारः । ८ अबलिम् । 'भागधेयः करोबलिः' इत्यभिधानात् । ६ भूमिम् । १० कुसिताः । ११ तर्हि । १२ भटगण । १३ साधयन्त्वित्यर्थः। १४ पूर्वं शय्यायाः प्रतिशय्या-अन्य शय्या तस्यां निपातेन मरणप्राप्त्या इत्यर्थः । १५ वृत्तिक्षेत्र। १६ सम्यक्षेत्रादिविभागः ।
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