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महापुराणम्
नभःस्फटिकनिर्माणं प्राकारवलयं ततः । प्रत्यासजिनस्व लब्धशुद्धि ददर्श सः ॥१०४॥ (तत्र कल्पोपमै देवैः महादौवारपालकैः। सादरं सोऽभ्यनुज्ञातः प्रविवेश सभां विभोः ॥१०॥ समन्ताद्योजनायामविष्कम्भपरिमण्डलम् । श्रीमण्डपं जगद्विश्वम् अपश्यन्मान्तमात्मनि ॥१०६॥ तत्रापश्यन्मुनीनिद्धबोधान्देवीश्च कल्पजाः । सापिका नपकान्ताश्च ज्योतिर्वन्योरगामरीः ॥१०७॥ भावनव्यन्तरज्योतिः कल्पेन्द्रान्पार्थिवान्मगान् । भगवत्पादसंप्रेक्षाप्रीतिप्रोत्फुल्ललोचनान् ॥१०॥ गणानिति क्रमात् पश्यन्परीयाय परन्तपः । त्रिमेखलस्य पीठस्य प्रथमां मेखलां श्रितः ॥१०६।। तत्रानचं मुदा चक्री धर्मचक्रचतुष्टयम् । यक्षेन्द्रविधृतं मूर्ना अध्नबिम्बानुकारि यत् ॥११०॥ द्वितीयमेखलायां च "प्रार्चदष्टौ महाध्वजान् । चक्रेभोक्षाजपञ्चास्यस्रग्वस्त्रगरुडाकितान् ॥१११॥ मेखलायां तृतीयस्याम् अर्थक्षिष्ट जगद्गुरुम् । वृषभं स कृती यस्यां श्रीमद्गन्धकुटीस्थिता ॥११२॥ तद्गर्भ रत्नसन्दर्भरुचिरे हरिविष्टरे। मेरुशङग इवोत्तुङगे सुनिविष्टं महातनुम् ॥११३॥ छत्रत्रयकृतच्छायमप्यच्छायमच्छिदम् । स्वतेजोमण्डलाकान्तनसुरासुरमण्डलम् ॥११४॥ अशोकशाखिचिह्नन व्यञ्जयन्तमिवाजसा । स्वपादाश्रयिणां शोकनिरासे शक्तिमात्मनः ॥११५॥
चलत्प्रकीर्णकाकीर्णपर्यन्तं कान्तविग्रहम् । रुक्माद्रिमिव वप्रान्त पतन्निर्भरसकुलम् ॥११६॥ किया ॥१०३।। आगे चलकर उन्होंने आकाशस्फटिकका बना हुआ तीसरा कोट देखा। वह कोट ऐसा जान पड़ता था मानो जिनेन्द्रदेवकी समीपताके कारण उसे शुद्धि ही प्राप्त हो गई हो ।।१०४॥ वहां महाद्वारपालके रूपमें खड़े हुए कल्पवासी देवोंसे आदरसहित आज्ञा लेकर भरत महाराजने भगवान्की सभामें प्रवेश किया ॥१०५॥ वहां उन्होंने चारों ओरसे एक योजन लम्बा, चौड़ा, गोल और अपने भीतर समस्त जगत्को स्थान देनेवाला श्रीमण्डप देखा ॥१०६॥ उसी श्रीमण्डपके मध्यमें उन्होंने जिनेन्द्र भगवान्के चरणोंके दर्शन करने से उत्पन्न हुई प्रीतिसे जिनके नेत्र प्रफुल्लित हो रहे हैं ऐसे क्रमसे बैठे हुए उज्ज्वल ज्ञानके धारी मुनि, कल्पवासिनी देवियां, आर्यिकाओंसे सहित रानी आदि स्त्रियां, ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनवासी देवोंकी देवियां, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी देव, राजा आदि मनुष्य और मग आदि पशु ऐसे बारह संघ देखे तथा इन्हींको देखते हुए महाराज भरतने तीन कटनीदार पीठको प्रथम कटनीका आश्रय लेकर उसकी प्रदक्षिणा दी ।।१०७-१०९।। उस प्रथम कटनीपर चक्रवर्तीने, जिन्हें यक्षोंके इन्द्रोंने अपने मस्तकपर धारण कर रखा है और जो सूर्यके बिम्बका अनुकरण कर रहे हैं ऐसे चारों दिशाओंके चार धर्मचक्रोंकी प्रसन्नताके साथ पूजा की ।।११०॥ दूसरी कटनीपर उन्होंने चक्र, हाथी, बैल, कमल, सिंह, माला, वस्त्र और गरुड़के चिह्नोंसे चिह्नित आठ महाध्वजाओंकी पूजा की ॥१११॥ तदनन्तर विद्वान् चक्रवर्ती ने, जिसपर शोभायुक्त गन्धकुटी स्थित थी ऐसी तीसरी कटनीपर जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव को देखा ॥११२॥ उस गन्धकुटीके भीतर जो रत्नोंकी बनावटसे बहुत ही सुन्दर और मेरु पर्वतकी शिखरके समान ऊंचे सिंहासनपर बैठे हुए थे, जिनका शरीर बड़ा-जिनपर तीन छत्र छाया कर रहे थे परन्तु जो स्वयं छायारहित थे, पापोंको नष्ट करनेवाले थे, जिन्होंने अपने प्रभामण्डलसे मनुष्य, देव और धरणेन्द्र सभीके समूहको व्याप्त कर लिया था-जो अशोक वृक्षके चिह्नसे ऐसे जान पड़ते थे मानो अपने चरणोंका आश्रय लेनेवाले जीवोंका शोक दूर करनेके लिये अपनी शक्ति ही प्रकट कर रहे हों-जिनके समीपका भाग चारों ओरसे ढलते हुए चामरोंसे व्याप्त हो रहा था, जो सुन्दर शरीरके धारक थे और इसीलिये जो उस सुमेरु
१ सामीप्यात् । २ कल्पजैः। ३ दिव्यैः। ४ अपूजयत्। ५ समूहम् । ६ शोकविच्छेदे । ७ सानुप्रान्त ।
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