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महापुराणम् सालत्रितयमुत्तडागचतुर्गोपुरमण्डितम् । मडागलद्रव्यसन्दोहो निधयस्तोरण.नि च ॥१६॥ नाटयशालाद्वयं दीप्तं लसद्धपघटीद्वयम् । वनराजिपरिक्षेपश्चैत्यद्रुमपरिष्कृतः ॥१६२॥ वनवेदीद्वयं प्रोच्चैर्ध्वजमालाततावनिः । कल्पद्रुमवनाभोगाः स्तूपहावलीत्यपि ॥१६३॥ सदोऽवनि रियं देव नसुरासुरपावनी । त्रिजगत्सारसन्दोह इवं कत्र निवेशितः॥१६४॥ बहिविभूतिरित्युच्चैः आविष्कृतमहोदयाः । लक्ष्मीमाध्यात्मिकी व्यक्तं व्यनक्ति जिन तावकीम् ॥१६॥ सभापरिच्छदः सोऽयं सुरैस्तव विनिमितः । वैराग्यातिशयं नाथ नोपहन्त्य प्रतकितः ॥१६६॥ इत्यत्यद्भुतमाहात्म्यः त्रिजगद्वल्लभो भवान् । स्तुत्योपतिष्ठमानं मां "पुनीतात्पूतशासः॥१६७॥ अलं स्तुतिप्रपञ्चेन तवाचिन्त्यतमा गुणाः । जयेशान नमस्तुभ्यमिति सडक्षेपतः स्तुवे ॥१६८॥ जयेश जय निर्दग्धकर्मेन्धनजयाजर । जय लोकगुरो सार्व जयताज्जय जित्वर ॥१६॥ जय लक्ष्मीपते जिष्णो जयानन्तगुणोज्ज्वल । जय विश्वजगद्बन्धो जय विश्वजगद्धित ॥१७०॥ जयाखिलजगद्वेदिन जयाखिलसुखोदय । जयाखिलजगज्ज्येष्ठ जयाखिलजगद्गुरो ॥१७१॥
जय निजितमोहारे जय जितमन्मथ । जय जन्मजरात ऊकविजयिन् विजितान्तक ॥१७२।। वनोंका समूह-ऊँचे ऊँचे चार गोपुर, दरवाजोंसे सुशोभित तीन कोट, मङगल द्रव्योंका समूह, निधियां, तोरण-दो-दो नाटयशालाएँ, दो-दो सुन्दर धूप घट, चैत्यवृक्षोंसे सुशोभित वन पंक्तियोंकी परिधि-दो वनवेदी, ऊंची ऊंची ध्वजाओंकी पंक्तिसे भरी हई पथिवी, कल्पवृक्षों के वनका विस्तार, स्तूप और मकानोंकी पंक्ति-इस प्रकार मनुष्य देव और धरणेन्द्रोंको पवित्र करनेवाली आपकी यह सभाभूमि ऐसी जान पड़ती है मानो तीनों जगत्की अच्छी अच्छी वस्तुओंका समूह ही एक जगह इकट्ठा किया गया हो ।।१६०-१६४॥ हे जिनेन्द्र, जिससे आपका महान् अभ्युदय या ऐश्वर्य प्रकट हो रहा है ऐसी यह आपकी अतिशय उत्कृष्ट बाह्य विभूति आपकी अन्तरङग लक्ष्मीको स्पष्ट रूपसे प्रकट कर रही है ।।१६५॥ हे नाथ, जिसके विषयमें कोई तर्क-वितर्क नहीं कर सकता ऐसी यह देवोंके द्वारा रची हुई आपके समवसरणकी विभूति आपके वैराग्यके अतिशयको नष्ट नहीं कर सकती है। भावार्थ-समवसरण सभाकी अनुपम विभूति देखकर आपके हृदयमें कुछ भी रागभाव उत्पन्न नहीं होता है ।।१६६।। इस प्रकार जिनकी अद्भुत महिमा है, जो तीनों लोकोंके स्वामी हैं, और जिनका शासन अतिशय पवित्र है ऐसे आप स्तुतिके द्वारा उपस्थान (पूजा) करनेवाले मुझे पवित्र कीजिये ॥१६७।। हे भगवन्, आपकी स्तुतिका प्रपञ्च करना व्यर्थ है क्योंकि आपके गुण अत्यन्त अचिन्त्य है इसलिये मैं संक्षेपसे इतनी ही स्तुति करता हूं कि हे ईशान, आपकी जय हो और आपको नमस्कार हो ॥१६८॥ हे ईश, आपकी जय हो, हे कर्मरूप ईधनको जलानेवाले, आपकी जय हो, हे जरारहित, आपकी जय हो, हे लोकोंके गुरु, आपकी जय हो, हे सबका हित करने वाले, आपकी जय हो, और हे जयशील, आपकी जय हो ॥१६९॥ हे अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मीके स्वामी जयनशील, आपकी जय हो। हे अनन्तगुणोंसे उज्ज्वल, आपकी जय हो। हे समस्त जगत् के बन्धु, आपकी जय हो। हे समस्त जगत्का हित करनेवाले, आपकी जय हो ॥१७०॥ हे समस्त जगत्को जाननेवाले, आपकी जय हो। हे समस्त सुखोंको प्राप्त करनेवाले, आपकी जय हो। हे समस्त जगत्में श्रेष्ठ, आपकी जय हो। हे समस्त जगत्के गुरु, आपकी जय हो ॥१७१॥ हे मोहरूपी शत्रुको जीतनेवाले, आपकी जय हो। हे कामदेवको भर्त्सना करने
१ अलकृतः ‘परिष्कारो विभूषणम्' इत्यभिधानात् । २ नवाभोग: द०, इ०,। ३ समवसरणभूमिः । ४ न नाशयति । ५ ऊहातीत: ऊहितुमशक्य इत्यर्थः । ६ स्तोत्रेणार्चयनम् । ७ पवित्र कुरु । ८ जयशील ।
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