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त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व
रवि:
विरुद्धाबद्धवाग्जालरुद्धव्यामुग्धबुद्धिषु । श्रश्रद्धेयमनाप्तेषु सार्वज्ञ्यं त्वयि तिष्ठते ॥१३७॥ पयोधरोत्सगसुप्तरश्मिविकासिभिः । सूच्यतेऽब्जैर्यथा तद्वद् उद्भर्वाग्विभवैर्भवान् ॥ १३८ ॥ प्रत्येक पदार्थ स्वचतुष्टय ( द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव ) की अपेक्षा अस्तित्व रूप ही है, परचतुष्टयकी अपेक्षा नास्तित्व रूप ही है और एक साथ दोनों धर्म नहीं कहे जा सकनेके कारण अवक्तव्य रूप भी है, इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ में मुख्यतासे अस्तित्व, नास्तित्व और अवक्तव्य ये तीन धर्म पाये जाते हैं । इन्हीं मुख्य धर्मो के संयोगसे सात सात धर्म हो जाते हैं । जैसे ' जीवोऽस्ति' जीव है । यहां पर जीव और अस्तित्व क्रियामें विशेष्य विशेषण सम्बन्ध है | विशेषण विशेष्यमें ही रहता है इसलिये जीवका अस्तित्व जीवमें ही है दूसरी जगह नहीं है, इसी प्रकार 'जीवनास्ति'- जीव नहीं है यहाँपर भी जीव और नास्तित्वमें विशेष्यविशेषण सम्बन्ध है इसलिये ऊपर कहे हुए नियमसे नास्तित्व जीवमें ही है दूसरी जगह नहीं है । जीवके इन अस्तित्व और नास्तित्व रूप धर्मोंको एक साथ कह नहीं सकते इसलिये उसमें एक अवक्तव्य नामका धर्म भी है । इन तीनों धर्मोमेंसे जब जीवके केवल अस्तित्व धर्मकी विवक्षा करते हैं तब 'स्याद् अस्त्येव जीवः' ऐसा पहला भङ्ग होता है, जब नास्तित्व धर्मकी विवक्षा करते हैं तब 'नास्त्येव जीवः' ऐसा दूसरा भङ्ग होता है, जब दोनोंकी क्रम क्रमसे विवक्षा करते हैं तब 'स्यादस्ति च नास्त्येव जीवः' इस प्रकार तीसरा भङ्ग होता है, जब दोनोंकी अक्रम अर्थात् एक साथ विवक्षा करते हैं तब दो विरुद्ध धर्म एक कालमें नहीं कहे जा सकने के कारण 'स्यादवक्तव्यमेव' ऐसा चौथा भङ्ग होता है, जब अस्तित्व और अवक्तव्य इन दो धर्मोकी विवक्षा करते हैं तब 'स्यादस्ति चावक्तव्यं च' ऐसा पाँचवाँ भङ्ग होता है, जब नास्तित्व और अवक्तव्य इन दो धर्मोकी विवक्षा करते हैं तब 'स्यान्नास्ति चा वक्तव्यं च' ऐसा छठवाँ भङ्ग हो जाता है और जब अस्तित्व, नास्तित्व तथा अवक्तव्य इन धर्मोकी विवक्षा करते हैं तब 'स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यं' च ऐसा सातवाँ भङ्ग हो जाता है । संयोगकी अपेक्षा प्रत्येक पदार्थ में प्रत्येक धर्म सात सात भङ्गके रूप रहता है इसलिये उन्हें कहने के लिये जिनेन्द्र भगवान् ने सप्त-भङ्गी (सात भङ्गों के समूह ) रूप वाणी के द्वारा उपदेश दिया है । जिस समय जीवके अस्तित्व धर्मका निरूपण किया जा रहा है उस समय उसके अवशिष्ट धर्मोका अभाव न समझ लिया जावे इसलिये उसके साथ विवक्षा सूचक स्याद् शब्दका भी प्रयोग किया जाता है तथा सन्देह दूर करने के लिये नियमवाचक एव याच आदि निपातों का भी प्रयोग किया जाता है जिससे सब मिलाकर 'स्यादस्त्येव जीवः ' इस वाक्यका अर्थ होता है कि जीव किसी अपेक्षासे है ही । इसी प्रकार अन्य वाक्योंका अर्थ भी समझ लेना चाहिये । जैनधर्म अपनी व्यापक दृष्टिसे पदार्थ के भीतर रहनेवाले उसके समस्त धर्मों का विवक्षानुसार कथन करता है इसलिये वह स्याद्वादरूप कहलाता है । वास्तव में इस सर्वमुखी दृष्टिके बिना वस्तुका पूर्ण स्वरूप कहा भी तो नहीं जा सकता ।। १३६ ।। हे देव, जिनकी बुद्धि प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे विरुद्ध तथा सम्बन्धरहित वचनोंके जालमें फंसकर व्यामुग्ध हो गई है ऐसे कुदेवोंमें श्रद्धान नहीं करने योग्य सर्वज्ञता आपमें विराजमान है । भावार्थ - सर्वज्ञ ही हो सकता है जिसके वचनों में कहीं भी विरोध नहीं आता है । संसारके अन्य देवी-देवताओं के वचनों में पूर्वापर विरोध पाया जाता है और इसीसे उनकी भ्रान्त बुद्धिका पता चल जाता है इन सब कारणों को देखते हुए 'वे सर्वज्ञ थे' ऐसा विश्वास नहीं होता परन्तु आपके वचनों अर्थात् उपदेशों में कहीं भी विरोध नहीं आता तथा आपने वस्तुके समस्त धर्मों का वर्णन किया है इससे आपकी बुद्धि-ज्ञान-निर्भ्रान्त है और इसीलिये आप सर्वज्ञ हैं ।। १३७ ।। जिस प्रकार मेघोंके १ प्रमाणभूते निर्णयाय तिष्ठतीत्यर्थः । स्थेयप्रकाशने इति स्थेयविषये आत्मने पदे - विवादपदे निर्णता प्रमाणभूतः पुरुषः स्थेयः ।
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