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महापुराणम्
ज्वलत्यौषधिजालेऽपि निशि नाभ्येति किन्नरः । तमोविशङकाऽस्याद्रेः इन्द्रनीलमयीस्तटोः ॥५८॥ हरिन्मणितटोत्सर्पन्मयूखानत्र भूधरे । तृणाङकुरधियोपेत्य मृगा यान्ति विलक्ष्यताम् ॥५६॥ सरोजराग' रत्नांशुच्छ रिता वनराजयः । तताः सःध्यातपेनेव पुष्णन्तीह परां श्रियम् ॥ ६० ॥ सूर्याशुभिः परामृष्टाः सूर्यकान्ता ज्वलन्त्यमी । प्रायस्तेजस्विसंपर्कस्तेजः पुष्णाति तादृशम् ॥ ६१ ॥ इहेन्दुक रसंस्पर्शात्प्रक्ष रन्तोऽप्यनुक्षपम्' । चन्द्रकान्ता न हीयन्ते विचित्रा पुद्गलस्थितिः ॥६२॥ सुराणामभिगम्यत्वात् सिंहासनपरिग्रहात् । महत्त्वादचलत्वाच्च गिरिरेष जिनायते ॥ ६३ ॥ शुद्धस्फटिक सङकाशनिर्मलोदारविग्रहः । शुद्धात्मेव शिवायास्तु तवायमचलाधिपः ॥ ६४॥ इति शंसति' तस्याद्रेः परां शोभां पुरोधसि । शंसाद्भूत इवानन्दं परं प्राप परन्तपः १० ॥६५॥ किञ्चिच्चान्तरमुल्लङ्घ्य प्रसन्नेनान्तरात्मना । प्रत्यासन्नजिनास्थानं विदामास विदांवरः ॥ ६६ ॥ निपतत्पुष्पवर्षेण दुन्दुभीनां च निःस्वनैः । विदाम्बभूव" लोकेशम् श्रभ्यासकृतसन्निधिम् ॥६७॥
किनारे के समीप संचार करते हुए नक्षत्रोंके समूहपर मणियोंकी कान्ति पड़ रही है जिससे वे मणियोंके समान ही जान पड़ते हैं, पृथक् रूपसे दिखाई नहीं देते हैं ।। ५७॥ यद्यपि यहाँ रात्रि के समय औषधियों का समूह प्रकाशमान रहता है तथापि किन्नर जातिके देव अंधकारकी आशंका से इन्द्रनील मणियों के बने हुए इस पर्वतके किनारोंके सन्मुख नहीं जाते हैं ।। ५८ ।। इस पर्वत पर हरित मणियों के बने हुए किनारोंकी फैलती हुई किरणोंको हरी घासके अंकुर समझकर हरिण आते हैं परन्तु घास न मिलनेसे बहुत ही आश्चर्य और लज्जाको प्राप्त होते हैं ॥ ५९ ॥ इधर पद्मराग मणियोंकी किरणोंसी व्याप्त हुई वनकी पंक्तियाँ ऐसी उत्कृष्ट शोभा धारण कर रही हैं मानो उनपर संध्याकालकी लाल लाल धूप ही फैल रही हो ॥ ६० ॥ ये सूर्यकान्त मणि सूर्यकी किरणोंका स्पर्श पाकर जल रही हैं सो ठीक ही है क्योंकि प्रायः तेजस्वी पदार्थका संबंध तेजस्वी पदार्थके तेजको पुष्ट कर देता है || ६१ || इस पर्वतपर चन्द्रमाकी किरणोंका स्पर्श होनेपर चन्द्रकान्त मणियोंसे यद्यपि प्रत्येक रात्रिको पानी झरता है तथापि ये कुछ भी कम नहीं होते सो ठीक ही है क्योंकि पुद्गलका स्वभाव बड़ा ही विचित्र है ||६२ ॥ अथवा यह पर्वत ठीक जिनेन्द्रदेवके समान जान पड़ता है क्योंकि जिस प्रकार जिनेन्द्रदेवके समीप देव आते हैं उसी प्रकार इस पर्वतपर भी देव आते हैं, जिस प्रकार जिनेन्द्रदेवने सिंहासन स्वीकार किया है उसी प्रकार इस पर्वतने भी सिंहासन अर्थात् सिंहके आसनोंको स्वीकार किया है-इसपर जहाँ-तहाँ सिंह बैठे हुए हैं अथवा सिंह और असन वृक्ष स्वीकार किये हैं, जिस प्रकार जिनेन्द्रदेव महान् अर्थात् उत्कृष्ट हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी महान् अर्थात् ऊँचा है और जिनेन्द्रदेव जिस प्रकार अचल अर्थात् अपने स्वरूप में स्थिर हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी अचल अर्थात् स्थिर है ॥६३॥ हे देव, जिसका उदार शरीर शुद्ध स्फटिकके समान निर्मल है ऐसा यह पर्वतराज कैलास शुद्धात्माकी तरह आपका कल्याण करनेवाला हो ।। ६४ ।। इस प्रकार जब पुरोहितने उस पर्वतकी उत्कृष्ट शोभाका वर्णन किया तब शत्रुओं को संतप्त करनेवाले महाराज भरत इस प्रकार परम आनन्दको प्राप्त हुए मानो सुखरूप ही हो गये हों ॥। ६५|| विद्वानोंमें श्रेष्ठ भरत चक्रवर्ती प्रसन्न चित्तसे कुछ ही आगे बढ़े थे कि उन्हें वहाँ समीप ही जिनेन्द्रदेवका समवसरण जान पड़ा || ६६ ॥ ऊपरसे पड़ती हुई पुष्पवृष्टिसे और दुन्दुभि बाजों के शब्दोंसे उन्होंने जान
१ विस्मयताम् । २ पद्मराग । ३ मिश्रिताः । ४ वर्द्धयन्ति । ५ रात्री रात्री । ६ न कृशा भवन्ति । ७ हरिविष्टरस्वीकारात्, पक्ष सिंहानामशनवृक्षाणाञ्च स्वीकारात् । ८ स्तुति कुर्वति सति । ६ सुखायत्तः । १० परं शत्रुं तापयतीति पतपश्चकी । १९ जानाति स्म । १२ समीपनिहित स्थितिम् ।
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