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महापुराणम् किञ्चिदन्तरमारुहय पश्यन्नद्रेः परां श्रियम् । प्राप्तावसरमित्यूचे वचनं च पुरोधसा ॥३६॥ पश्य देव गिरेरस्य प्रदेशान्बहुविस्मयान् । रमन्ते त्रिदशा यत्र स्वर्गावासेऽप्यनादराः ॥३७॥ पर्याप्तमेतदेवास्थ प्राभवं भुवनातिगम् । देवो यदेनमध्यास्ते चराचरगुरुः पुरुः ॥३८॥ महाबिरयमुत्सडागसङगिनीः सरिदङगनाः । शश्वद् बित्ति कामीव गलन्नीलजलांशुकाः ॥३६॥ क्रीडाहेतारहिंस्रोऽपि मगेन्द्रो गिरिकन्दरात् । महाहिमयमाकर्षन्दान्मुञ्चत्यपारयन् ॥४०॥ सर्वद्वन्द्व सहान्सान* जनतातापहारिणः । मुनीनिव बनाभोगानेष' धत्तेऽधिमेखलम् ॥४१॥ हरीनखरनिभिन्नमदद्विरदमस्तकान् । निर्भरैः पापभीत्येव तर्जयत्येष सारवः ॥४२॥ धत्ते सानुचरान् भद्रान् उच्च वंशान् स्ववग्रहान् । वनद्विपानयं शैलो भवानिव महीभुजः० ॥४३।। ध्वनतो घनसंघातान शरभा रभसादमी। द्विरदाशङकयोत्पत्य पतन्तो यान्ति शोच्यताम् ॥४४॥
कपोलकाषसंरुग्ण त्वचो गदजलाविलाः । द्विपानां वनसम्भोगं सूचयन्तीह" शाखिनः ॥४५॥ समझकर नखरूपी अंकुरोंसे दिदारण करता हुआ सिंह देखा ॥३५॥ भरत महाराज कुछ दूर आगे चढ़कर जब पर्वतकी शोभा देखने लगे तब पुरोहितने अवसर पाकर नीले लिखे अनुसार वचन कहे ॥३६॥ हे देव, इस पर्वतके अनेक आश्चर्योंसे भरे हुए उन प्रदेशोंको देखिये जिन पर कि देव लोग भी स्वर्गवासमें अनादर करते हुए क्रीड़ा कर रहे हैं ॥३७॥ समस्त लोकको उल्लंघन करनेवाली इस पर्वतकी महिमा इतनी ही बहुत है कि चर और अचर--सभोक गुरु भगवान् वृषभदेव इसपर विराजमान हैं ॥३८॥ यह महापर्वत अपनी गोदी अर्थात् नीचले मध्यभागमें रहनेवाली और जिनके नीले जलरूपी वरत्र छूट रहे हैं ऐसी नदीरूपी स्त्रियोंको कामी पुरुपकी तरह सदा धारण करता है ॥३९॥ यह सिह हिसक होने पर भी केनल क्रीड़ा के लिये पर्वतकी गुफामेंसे एक बड़े भारी सर्पको खींच रहा है परन्तु लम्बा होने से खींचनेके लिये असमर्थ होता हुआ उसे छोड़ भी रहा है ॥४०॥ यह पर्वत अपने तटभागपर ऐसे अनेक वनके प्रदेशों को धारण करता है जो कि ठीक मुनियोंके समान जान पड़ते हैं क्योंकि जिस प्रकार मुनि सब प्रकारके द्वन्द्व अर्थात् शीत उष्ण आदिकी बाधा सहन करते हैं उसी प्रकार वे वनके प्रदेश भी सब प्रकारके दुन्द्र अर्थात् पशुपक्षियों आदिके यगल सहन नापते हैं,-धारण करते हैं, जिस प्रकार मुनि सबका कल्याण करते हैं उसी प्रकार बनके प्रदेश भी सवका कल्याण करते हैं और जिस प्रकार मुनि जनसमूहके संताप अर्थात् मानसिक व्यथाको दूर करते हैं उसी प्रकार । वनके प्रदेश भी संताप अर्थात् सूर्यके घामसे उत्पन्न हुई गरमीको दूर करते हैं ॥४१॥ यह पर्वत शब्द करते हुए झरनोंसे ऐसा जान पड़ता है मानो जिन्होंने अपने नखोंसे मदोन्मत्त हाथियों के मस्तक विदारण किये हैं ऐसे सिंहोंको पापके डरसे तर्जना ही कर रहा हो-डाट ही दिखा रहा हो ॥४२॥ हे नाथ, जिस प्रकार आप सानन्धर अर्थात सेक्कों सहित, भद्र, उच्च कलमें उत्पन्न हुए और उत्तम शरीरवाले अनेक राजाओंको धारण करते हैं--उन्हें अपने आधीन रखते हैं, उसी प्रकार यह पर्वत भी सानुचर अर्थात् शिखरोंपर चलनेवाले, पीठपरकी उच्च रीढ़से युक्त और उत्तम शरीरवाले भद्र जातिके जंगली हाथियोंको धारण करता है ॥४३॥ इधर ये अष्टापद, गरजते हुए मेघोंके समूहको हाथी समझकर उनपर उछलते हैं परन्तु फिर नीचे गिरकर शोचनीय दशाको प्राप्त हो रहे हैं ॥४४॥ कपोलोंके बिसनेसे जिनकी छाल धिस
१ अघातुकोऽपि । २ समर्थो भूत्वा । ३ प्राणियगल, पक्षे दुःख । ४ सर्वहितान् । ५ गिरिः । ६ ध्वनिसहितः। ७ सानुषु चरन्तीति सानुचरास्तान्, पक्षे अनुचरैः सहितान् । ८ उन्नतपृष्ठास्थीन्, पक्षे इक्ष्वाक्वादिवंशान् । ६ स्वविग्रहान् ट० । शोभनललाटान् । 'अवग्रहो ललाट स्याद्' इत्यभिधानात् । पक्षेसुष्ठ स्वतन्त्रतानिषेधान । 'अवनह इति ख्यातो वृष्टिरोधे गजालिके । स्वतन्त्रतानिषेधेऽपि प्रतिबन्धेऽप्यवग्रह' इत्यभिधानात् । १० भूपतीन् । ११ मेघसमूहान् । १२ गण्डस्थलनिघर्षणसंभग्न । १३ आर्दाः । १४ गिरौ ।
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