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त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व पद्मरागांश भिभिन्नः स्फटिकोपलरश्मिभिः। प्रारक्तश्वेतवप्रान्तं किलासिनमिव क्वचित् ॥२३॥ क्यचिद्विश्लिष्ट शैलेयपटलर्बहुदद्रुणः । मृगेन्द्रनखरोल्लेखसहर्गण्डोपलस्ततम् ॥२४॥ क्वचिद्गु हान्तराद् गुञ्जन्मृगेन्द्रप्रतिनादिनोः । तटोर्दधानमुद्व द्धमदैः परिहृतागजः ॥२५॥ क्वचित् सितोपलोत्सङग चारिणीरमराङागनाः । विभाणं शरदभान्तर्वतिनीरिव विद्युतः ॥२६॥ तमित्यद्भुतया लक्ष्म्या परीतं भूभृतां पतिम् । स्वमिवालङययमालोक्य चक्रपाणिरगान्मदम् ॥२७॥ गिरेरधस्तले दूराद् वाहनादिपरिच्छदम् । विहाय पादचारेण ययौ किल स धर्मधीः ॥२८॥ पद्भ्यामारोहतोऽस्याद्रि नासीत् खेदो मनागपि । हितार्थिनां हि खेदाय नात्मनीनः क्रियाविधिः ॥२६॥ आरुरोह स तं शैलं सुरशिल्पिविनिर्मितः । विविक्तैर्मणिसोपानस्स्वर्गस्येवाधिरोहणः ॥३०॥ अधित्यकासु' सोऽस्याद्रः प्रस्थाय वनराजिषु । लम्भितोऽतिथिसत्कारमिव शीतैर्वनानिलैः ॥३१॥ क्वचिदुत्फुल्लमन्दारवणवीथीविहारिणीः। विविक्त सुमनोभूषाः सोऽपश्यद्वनदेवताः ॥३२॥ क्वचिद्वनान्तसंसुप्तनिजशावानुशायिनीः। मृगीरपश्यदारब्ध मदुरोमन्थमन्थराः ॥३३॥ क्वचिनि कुञ्चसंसुप्तान् बहतः शयुपोतकान् । “पुरीतन्निकरानद्रेरिवापश्यत्स पुजितान् ॥३४॥
क्वचिद् गजमदामोदवासितान् गण्डशैलकान् । ददृशे" हरिरारोषाद् उल्लिखन्नखराङकुरैः ॥३॥ इसलिये जो ऐसा जान पड़ता है मानो उसे किलास (कुष्ठ) रोग ही हो गया हो। जिनपर कहीं कहीं अनेक धातुओंके टुकड़े टूट-टूटकर पड़े हैं तथा जो सिंहोंके नखोंका आघात सहनेवाली हैं और इसलिये जो ऐसी जान पड़ती हैं मानो उनपर बहुतसा दाद हो गया हो ऐसी अनेक चट्टानों से जो व्याप्त हो रहा है। कहीं कहींपर जिनमें गुफाओंके भीतर गरजते हुए सिंहोंकी प्रतिध्वनि व्याप्त हो रही है और इसीलिये जिन्हें मदोन्मत्त हाथियोंने छोड़ दिया है ऐसे अनेक किनारों जो धारण कर रहा है और जो कहीं कहींपर शरदऋतुके बादलोंके भीतर रहनेवाली बिजलियोंके समान स्फटिक मणियोंकी शिलाओंपर चलनेवाली देवांगनाओंको धारण कर रहा है -इस प्रकार अद्भुत शोभासे सहित उस कैलास पर्वतको देखकर चक्रवर्ती भरत बहुत ही आनन्दको प्राप्त हुए। और उसका खास कारण यह था कि वह चक्रवर्तीके समान ही अलंध्य था और भूभृत अर्थात् पर्वतों (पक्षमें राजाओं) का अधिपति था ॥१५-२७॥ धर्मबुद्धिको धारण करनेवाले महाराज भरत पर्वतके नीचे दूरसे ही सवारी आदि परिकरको छोड़कर पैदल चलने लगे ॥२८॥ पैदल ही पर्वतपर चढ़ते हुए भरतको थोड़ा भी खेद नहीं हुआ था सो ठीक ही है क्योंकि कल्याण चाहनेवाले पुरुषोंको आत्माका हित करनेवाली क्रियाओंका करना खेद के लिये नहीं होता है ॥२९॥ स्वर्गकी सीढियोंके समान देवरूपी कारीगरोंके द्वारा बनाई हुई पवित्र मणिमयी सीढ़ियोंके द्वारा महाराज भरत उस कैलास पर्वतपर चढ़ रहे थे ॥३०॥ चढ़ते चढ़ते वे उस पर्वतके ऊपरकी भूमिपर जा पहुंचे और वहां उन्होंने वनकी पंक्तियोंमें वनकी शीतल वायुके द्वारा मानो अतिथिसत्कार ही प्राप्त किया था ॥३१॥ वहां उन्होंने कहीं तो फूले हुए मन्दार वनकी गलियोंमें घूमती हुई तथा फूलोंके पवित्र आभूषण धारण किये हुई वनदेवियोंको देखा ॥३२॥ कहीं वनके भीतर अपने बच्चोंके साथ लेटी हुई और धीरे धीरे रोमन्थ करती हई हरिणियोंको देखा ॥३३॥ कहीं लतागहोंमें सोते हए और एक जगह इकटठे हुए अजगरके उन बड़े बड़े बच्चोंको देखा जो कि उस पर्वतकी अंतड़ियोंके समहके समान जान पड़ते थे ॥३४॥ और कहींपर हाथियोंके मदसे सुवासित बड़ी बड़ी काली चट्टानोंको हाथी
१ मिलितैः । २ पाटलसान्वन्तम् । 'श्वेत रक्तस्तु पाटल' इत्यभिधानात् । ३ सिध्मलम् । 'किलासी सिध्मल' इत्यभिधानात् । ४ शिथिलितकुसुमसमूहैः। ५ दद्रुरोगिसदृशैः । 'दद्रुणो दद्रुरोगी स्याद्' इत्यभिधानात् । ६ स्फटिकशिलामध्य। ७ आत्महितः । ८ ऊर्श्वभूमिषु । ६ प्रापितः । १० विभिन्न । ११ उपक्रान्त । १२ निकुञ्ज ल०, द०, अ०, प०, इ०, स० । १३ अजगरशिशून् । १४ अन्त्रसमूहान् । १५ दृश्यते स्म ।
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