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त्रयत्रिंशत्तमं पर्व
श्रीमानानमिताशेषनु पविद्याधरामरः । सिद्धदिग्विजयश्चक्री न्यवृत्तत्स्वां पुरीं प्रति ॥ १॥ नवस्य निधयः सिद्धा रत्नान्यपि चतुर्दश । सिद्ध विद्याधरैः सार्द्धं षट्षण्डधरणीभुजः ॥२॥ जित्वा महीमिमां कृत्स्नां लवणाम्भोधिमेखलाम् । प्रयाणमकरोच्चक्री साकेतनगरं प्रति ॥३॥ प्रकीर्णकचलद्वीचिरुल्लसच्छत्रबुदबुदा । निर्ययौ विजयार्द्धाद्रितटाद् गङ्गेव सा चमूः ॥४॥ करिणीनौभिरश्वीयकल्लोलैर्ज नतोमिभिः । दिशो रुन्धन्बलाम्भोधिः प्रससर्प स्फुरद्ध्वनिः ॥५॥ चलतां रथचक्राणां चीत्कारैर्हयहेषितैः । बृहितश्च गजेन्द्राणां शब्दाद्वैतं तदाभवत् ॥ ६ ॥ भेर्यः प्रस्थानशंसिन्यो नेदुरामन्द्रनिःस्वनाः । श्रकालस्तनिताशङकाम् श्रातन्वानाः शिखण्डिनाम् ॥७॥ भूद्धमश्वीयं हास्तिकेन प्रसर्पता । न्यरोधि पत्तिवृन्दं च प्रयान्त्या रथकल्पया ॥८॥ पादातकृतसंवाधात् पथः ' पर्यन्तपातिनः । हया गजा वरूथाश्च भेजुस्तिर्यक्प्रचोदिताः ॥॥ पर्वतोदप्रमारूढो गजं विजयपर्वतम् । प्रतस्थे विचलन्मौलिः चत्री शक्रसमद्युतिः ॥१०॥ श्रनुगात देशान् विलङ्घय ससरिद् गिरीन् । कैलासशैलसान्निध्यं प्रापतच्चक्रिणो बलम् ॥११॥
अथानन्तर—जिन्होंने समस्त राजा विद्याधर और देवोंको नम्रीभूत किया है तथा समस्त दिग्विजय में सफलता प्राप्त की है ऐसे श्रीमान् चक्रवर्ती भरत अपनी अयोध्यापुरीके प्रति लौटे ॥ १॥ इन महाराज भरतको नौ निधियां और चौदह रत्न सिद्ध हुए थे तथा विद्याधरोंके साथ साथ छह खण्डों के समस्त राजा भी इनके वश हुए थे ॥ २॥ लवण समुद्र ही जिसकी मेखला है ऐसी इस समस्त पृथिवीको जीतकर चक्रवर्तीने अपने अयोध्या नगरकी ओर प्रस्थान किया ||३|| ढलते हुए चमर ही जिसकी लहरें हैं और ऊपर चमकते हुए छत्र ही जिसके बबूले हैं ऐसी वह सेना गंगा के समान विजयार्ध पर्वतके तटसे निकली ||४|| हथिनीरूपी नावोंसे, घोड़ों के समूहरूपी लहरोंसे और मनुष्यों के समूहरूपी छोटी छोटी तरङ्गोंसे दिशाओंको रोकता हुआ तथा खूब शब्द करता हुआ वह सेनारूपी समुद्र चारों ओर फैल गया ||५|| उस समय चलते हुए रथोंके पहियोंके चीत्कार शब्दसे, घोड़ोंकी हिनहिनाहटसे और हाथियोंकी गर्जनासे शब्दाद्वैत हो रहा था अर्थात् सभी ओर एक शब्द ही शब्द नजर आ रहा था || ६ || जिनका शब्द अतिशय गम्भीर है ऐसी प्रस्थान - कालको सूचित करनेवाली भेरियाँ मयूरोंको असमयमें ही बादलोंके गरजनेकी शंका बढ़ाती हुई शब्द कर रही थीं ॥ ७ ॥ उस समय दौड़ते हुए हाथियों समूहसे घोड़ों का समूह रुक गया था और चलते हुए रथोंके समूहसे पैदल चलनेवाले सिपाहियों का समूह रुक गया था ||८|| पैदल सेनाके द्वारा जिन्हें कुछ बाधा की गई है ऐसे हाथी घोड़े और रथ - थोड़ी दूरतक कुछ तिरछे चलकर ठीक रास्तेपर आ रहे थे । भावार्थं सामने पैदल मनुष्यों की भीड़ देखकर हाथी घोड़े और रथ बगलसे बरक कर आगे निकल रहे थे ॥ ९ ॥ जिनका मुकुट कुछ कुछ हिल रहा है और जिनकी कान्ति इन्द्रके समान है ऐसे चक्रवर्तीने पर्वत के समान ऊंचे विजय पर्वत नामके हाथीपर सवार होकर प्रस्थान किया || १०॥ चक्रवर्ती की वह सेना गङ्गा नदीके किनारे किनारे अनेक देश, नदी और पर्वतोंको उल्लंघन करती हुई
१ सिद्धा विद्या-ल०, इ०, द०, अ०, स०, प० । २ षट्खण्डस्थितमहीपालाः । ३ मेघध्वनि । ४ मार्गान् । संवाधान्पथः अ०, प०, स०, इ०, द० । ५ मार्ग विहाय पर्यन्ते वर्तमाना भूत्वा । ६ संप्रापच्चक्रिणां बलम् ल० ।
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