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द्वात्रिंशत्तमं पर्व
तां मनोज' रसस्येव स्रुतिं संप्राप्य चक्रभृत् । स्वं मेने सफलं जन्म परमानन्दनिर्भरः ॥ १८४ ॥ तावानिजित निःशेषम्लेच्छराजबलो बलैः । जयलक्ष्मों पुरस्कृत्य सेनानीः प्रभुमंक्षत ॥१८५॥ कृतकार्यं च सत्कृत्य तं तांश्च म्लेच्छनायकान् । विसर्ण्य सम्राट् सज्जोऽभूत् प्रत्यायातुमपाङत्महीम् ॥१८६॥ जयप्रयाणशंसिन्यः तदाभेर्यः प्रदध्वनुः । विष्वग्बलार्णवे क्षोभम् श्रातन्वन्त्यो महीभृताम् ॥ १८७॥ (तां काण्डकप्रपाताख्यां प्रागेवोद्घाटितां गुहाम् । प्रविवेश बलं जिष्णोः चक्ररत्नपुरोगमाम् ॥१८८॥ गङगापगोभयप्रान्तमहावीथीद्वयेन सा । व्यतीयाय गुहां सेना कृतद्वारां चमूभृता ॥१८६॥ मुच्यमाना गुहा संन्धेः चिरादुच्छ्वसितेव सा । चमूरपि गुहारोधान्निःसृत्योज्जीवितेव सा ॥ १६०॥ नाट्यमालामरस्तत्र रत्नार्थः प्रभुमर्धयन् । प्रत्यगृह्णाद् गुहाद्वारि पूर्णकुम्भादिमंगलः ॥ १६१ ॥ कृतोपच्छन्दनं चामुं नाट्यमालं सुरर्षभम् । व्यसर्जयद्यथोद्देशं सत्कृत्य भरतर्षभः ॥ १६२ ॥ कृतोदयमिनं ध्वान्तात्परितो गगनेचराः । परिचेरुर्नभोमार्गम् श्रारुध्य धूत सायकाः ॥ १६३॥ मालिनीवृत्तम्
नमिविनभिपुरो गैरन्वितः खेचरेन्द्रः खचरगिरिगुहान्तर्ध्वान्तमुत्सार्य दूरम् । रविवि किरणोघैद्यतयन्दिग्विभागान् निधिपतिरुदियाय' प्रीणयन् जीवलोकम् ॥१६४॥ सरस किसलयान्तः स्पन्दमन्दे सुरस्त्रीस्तनतटपरिलग्न क्षौमसंक्रान्तवासे' ।
सरति" मरुति मन्दं कन्वरेष्वभिर्तुः निधिपतिशिबिराणां प्रादुरासन्निवेशाः ॥१६५॥ विद्याधरों के योग्य मंगलाचारपूर्वक विवाह किया ॥ १८३॥ रसकी धाराके समान मनोहर उस सुभद्राको पाकर उत्कृष्ट आनन्दसे भरे हुए चक्रवर्तीने अपना जन्म सफल माना था ॥ १८४॥ इतने में ही जिसने अपनी सेनाके द्वारा समस्त म्लेच्छ राजाओंकी सेना जीत ली है ऐसे सेनापति ने जयलक्ष्मीको आगे कर महाराज भरतके दर्शन किये || १८५ || जिसने अपना कार्य पूर्ण किया है ऐसे सेनापतिका सन्मान कर और आये हुए म्लेच्छ राजाओंको बिदाकर सम्राट् भरतेश्वर दक्षिणकी पृथिवीकी ओर आनेके लिये तैयार हुए ॥ ९८६ ॥ उस समय विजयके लिये प्रस्थान करने की सूचना 'देनेवाली भेरियाँ राजाओंकी सेनारूपी समुद्र में क्षोभ उत्पन्न करती हुई चारों ओर बज रही थीं ।। १८७।। चक्ररत्न जिसके आगे चल रहा है ऐसी भरतकी सेनाने पहलेसे ही उघाड़ी हुई काण्डकप्रपात नामकी प्रसिद्ध गुफामें प्रवेश किया ।। १८८।। उस सेनाने गङ्गा नदी के दोनों किनारोंपर की दो बड़ी बड़ी गलियोंमेंसे, सेनापतिके द्वारा जिसका द्वार पहले से ही खोल दिया गया है ऐसी उस गुफाको पार किया ।। १८९ ।। सेनाके द्वारा छोड़ी हुई वह गुफा ऐसी जान पड़ती थी मानो चिरकालसे उच्छ्वास ही ले रही हो और वह सेना भी गुफाके रोध से निकलकर ऐसी मालूम होती थी मानो फिरसे जीवित हुई हो ॥। १९० ।। वहाँ नाट्यमाल नाम के देवने दक्षिण गुफाके द्वारपर पूर्णकलश आदि मंगलद्रव्य रखकर तथा रत्नोंके अर्धसे अर्घ देकर भरत महाराजकी अगवानी की थी- सामने आकर सत्कार किया था ।। १९१।। भरत महाराजने अनेक प्रकारकी स्तुति करनेवाले उस नाट्यमाल नामके श्रेष्ठ देवका सत्कार कर उसे अपने स्थानपर जानेके लिये बिदा कर दिया ।।१९२।। धनुष बाण धारण करनेवाले विद्याधर चारों ओरसे आकाशमार्गको घेरकर, सूर्य के समान अन्धकारसे परे रहकर उदय होनेवाले चक्रवर्तीकी परिचर्या करते थे ।। १९३ ।। जिनमें नमि और विनमि मुख्य हैं ऐसे विद्याधरों सहित तथा विजयार्ध पर्वतकी गुफाके भीतरी अन्धकारको दूर हटाकर सूर्यके समान किरणोंके समूहसे दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ वह निधियोंका अधिपति चक्रवर्ती समस्त जीवलोकको आनन्दित करता हुआ उदित हुआ अर्थात् गुफाके बाहर निकला ॥ १९४ ॥ रस
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१ मनोज्ञां रसस्येव । २ दक्षिणभूमिम् । ३ सेनान्या । ४ कृतसान्त्वनम् । ५ सुरश्रेष्ठम् । ६ निजदेश मनतिक्रम्य । ७ पुरःसरः । ८ उदेति स्म । सुगन्धे । १० वाति सति ।
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