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महापुराणम्
किसलयपुरभेदी देवदारुमाणाम् श्रसकृदमरसिन्धोः सोकरान्ध्याधुनानः ।
श्रमसलिलम मुष्णा 'दुष्णसम्भूष्णु जिष्णोः खचरगिरितटान्तान्निष्पतन्मातरिश्वा ॥ १६६ ॥ सपदिविजय सैन्यनिर्जितम्लेच्छखण्ड: समुपहृतजयश्रीश्चक्रिणादिष्टमात्रात् ।
जिनमिव जयलक्ष्मी सन्निधानं निधीनां परिवृढमुपतस्थौ नमूमौलिश्चभूभृत् ॥ १६७॥
शार्दूलविक्रीडितम्
जित्वा म्लेच्छनृपौ विजित्य च सुरं प्रालेयशैलेर्शिनं देव्यौच प्रणमय्य दिव्यमुभयं स्वीकृत्य भद्रासनम् । हेलानिजितखेचराद्रिरधिराट् प्रत्यन्तपालान् जयन् सेनान्या विजयी व्यजेष्ट निखिलां षट्षण्डभूषां भुवम् १६८ पुण्यादित्ययमाहिमाह्वयगिरेरातोयधेः प्राक्तना "दाचापा व्यपयोनिधेर्जलनिधेरा च प्रतीच्यादितः । चक्रेक्ष्मामरिचत्र 'भीक रक रश्चक्रेण चत्री वशे तस्मात्पुण्यमुपार्जयन्तु सुधियो जैने मते सुस्थिताः ॥ १६६॥ इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण संग्रहे भरतोत्तरार्द्धविजयवर्णनं नाम द्वात्रिंशत्तमं पर्व ॥३२॥
युक्त नवीन कोमल पत्तोंके भीतर प्रवेश करनेसे मन्द हुआ तथा देवांगनाओंके स्तनतटपर लगे हुए रेशमी वस्त्रोंमें जिसकी सुगन्धि प्रवेश कर गई है ऐसा वायु जिस समय उस विजयार्ध पर्वतकी गुफाओं में धीरे धीरे बह रहा था उस समय निधियोंके स्वामी चक्रवर्तीकी सेनाके डेरोंकी रचना शुरू हुई थी ॥ १९५ ॥ देवदारु वृक्षोंके कोमल पत्तोंके संपुटको भेदन करनेवाला तथा गङ्गा नदीके जलकी बूंदोंको बार-बार हिलाता हुआ और विजयार्ध पर्वतके किनारे के अन्त भागसे आता हुआ वायु गर्मी से उत्पन्न हुए महाराज भरतके पसीनेको दूर कर रहा था ॥ १९६ ॥ चक्रवर्तीके द्वारा आज्ञा प्राप्त होने मात्रसे ही जिसने अपनी विजयी सेनाओंके द्वारा बहुत शीघ्र समस्त म्लेच्छ खण्ड जीत लिये हैं और जो जयलक्ष्मीको ले आया है ऐसा सेनापति अपना मस्तक झुकाये हुए, निधियोंके स्वामी भरत महाराजके समीप आ उपस्थित हुआ । उस समय भरत ठीक जिनेन्द्रदेवके समान मालूम होते थे क्योंकि जिस प्रकार जिनेन्द्र देवके समीप सदा जयलक्ष्मी विद्यमान रहती है उसी प्रकार उनके समीप भी जयलक्ष्मी सदा विद्यमान रहती थीं ॥१९७॥ विजयी भरतने ( चिलात और आनर्त नामके) दोनों म्लेच्छराजाओं को जीतकर हिमवान् पर्वतके स्वामी हिमवान् देवको कुछ ही समय में जीता, तथा (गङ्गा सिन्धु नामकी ) दोनों देवियों प्रणाम कराकर ( उनके द्वारा दिये हुए ) दो दिव्य भद्रासन स्वीकृत किये और विजयार्ध पर्वतको लीला मात्रमें जीतकर उसके समीपवर्ती राजाओंको जीतते हुए उन्होंने सेनापतिके साथ-साथ छह खण्डोंसे सुशोभित भरत क्षेत्रकी समस्त पृथिवी को जीता ॥१९८॥ जिनका हाथ अथवा टैक्स शत्रुओंके समहमें भय उत्पन्न करनेवाला है ऐसे चक्रवर्ती भरतने चक्ररत्नके द्वारा पुण्यसे ही हिमवान् पर्वतसे लेकर पूर्व दिशाके समुद्र तक और दक्षिण समुद्रसे लेकर पश्चिम समुद्र तक समस्त पृथिवी अपने वश की थी। इसलिये बुद्धिमान् लोगोंको जैन मतमें स्थिर रहकर सदा पुण्य उपार्जन करना चाहिये ।। ९९९ ।। इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके हिन्दी भाषानुवादमें उत्तरार्ध भरतकी विजयका वर्णन करनेवाला बत्तीसवां पर्व समाप्त हुआ ।
१ अनाशयत् । २ उष्णसञ्जातम् । ३ आगच्छन् । ४ आज्ञातः
गङ्गादेवीसिन्धुदेव्यौ ।
७ सुचिरं ल०, ६० । ८ हिमवद्गिरिपतिम् ।
१२ भयङ्करकरः । 'भयंकरं प्रतिभयमित्यभिधानात् ।
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। ५ नाथम् । ६ प्राप्तवानित्यर्थः । १० पूर्वात् । ११ दक्षिणसमुद्रात् ।
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