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महापुराणम्
वने वनचरल्त्रीणाम् उवस्यशतकावलीः | मुहुस्स्खलन् कपालेषु नृत्यद्वनशिखण्डिनाम् ॥ १७२ ॥ विलोलिता रावत्फल्ला बनवल्लरीः । गिरिनिर्भरसंश्लेषशिशिरो रुदा ॥ १७३॥ प्रतिप्रयाणमानमा नृपास्तद्देशवासिनः । प्रभुनारावयाञ्चक्रुः श्राक्रान्ता जयसाधनैः ॥१७४॥ कृत्स्नामिति प्रसाध्येनाम् उत्तरां भरतावनिम् । प्रत्यासोददथो जिष्णुः विजयार्द्धचलस्थलीः ॥ १७५ ॥ तत्रावासित सैन्यं च सेनान्यं प्रभुरादिशत् । श्रपावृत गृहाद्वारः प्राच्यखण्ड जयेत्यरम् ॥ १७६ ॥ यावदभ्येति सेनानी म्लेच्छ राजजयोद्यमात् । तावत्प्रभोः किलातीयुः मासाः षट् सुखसंगिनः ॥ १७७॥ दक्षिणोत्तरयोः श्रेण्योः निवसन्तोऽम्बरेवराः । विद्याधराधिपैः सार्द्धं प्रभुं द्रष्टुमिहाययुः ॥१७८॥ विद्यावरवराधीशेरारादाननू मौलिभिः । नखांशुमालिकाव्याजादाज्ञास्य शिरसा धृता ॥ १७६॥ afra faचैव विद्यावर 'धराधिप । स्वसारपनसामग्रया विभुं प्रष्टुमुपेयतुः ॥१८०॥ विद्याधरधरासारधनोपायनसंपदा । तदुपानीतया "अन्यतभ्ययासीद्विभीतिः ॥ १८१ ॥ तदुपाकृतत्वधैः कन्यारत्नपुरःसरैः । सरिदोषैरिचोदयात् श्रापूर्यत तदा प्रशुः ॥ १८२ ॥ स्वसारं च नमेर्वन्यां सुभद्रां नामकन्यकाम् । उदवाह स लक्ष्मीवान् कल्याणैः सचरोषितैः ॥ १८३॥
को सुखी कर रहा था ॥ १७१ ॥ वहांके बनमें भीलोंकी स्त्रियोंके केशोंके समूहको उड़ाता हुआ, नृत्य करते • हुए वनमयूरोंकी पूंछपर बार-बार टकराता हुआ, भूमरोंको इधर-उधर भगाता हुआ, फूली हुई वनकी लताओंको कुछ कुछ हिलाता हुआ और पहाड़ी झरनों के स्पर्शसे शीतल हुआ वायु चारों ओर वह रहा था ।। १७२ - १७३ ।। विजय करनेवाली सेनाके द्वारा दवाय हुए उन देशों में निवास करनेवाले राजा लोग नम्र होकर प्रत्येक पड़ावपर महाराज भरतकी आराधना करते थे || १७४ | इस प्रकार उत्तर भरत क्षेत्रकी समस्त पृथिवीको वशकर विजयी महाराज भरत फिरसे विजयार्थ पर्वतकी तराईमे आ पहुँचे ॥ १७५ ॥ । वहाँ पर उन्होंने सेना ठहराकर सेनापतिके लिये आज्ञा दी कि 'गुफाका द्वार उघाड़कर शीघ्र ही पूर्व सण्डकी विजय प्राप्त करो' || १७६ || जब तक सेनापति म्लेच्छराजाओंको जीतकर वापिस आया तब तक सुखपूर्वक रहते हुए महाराज भरतके छह महीने वहींपर व्यतीत हो गये || १७७ ।। विजयार्थ पर्वतकी दक्षिण तथा उत्तर श्रेणीपर निवास करनेवाले विद्याधर लोग अपने अपने स्वामियों के साथ महाराज भरतका दर्शन करने के लिये वहीं पर आये || १७८ ।। दूरसे ही मस्तक झुकानेवाले विद्याधर राजाओंने नखोंकी किरणों के समूहके बहाने से महाराज भरतकी आज्ञा अपने शिरपर धारण की थी । भावार्थ- नमस्कार करते समय विद्याधरराजाओं के मस्तक पर जो भरत महाराजके चरणोंके नखोंकी किरणें पड़ती थीं उनसे वे ऐसे मालूम होते थे मानो भरतकी आज्ञा ही अपने मस्तकपर धारण कर रहे हों ।। १७९ ।। नमि और विनमि दोनों ही विद्याधरों के राजा अपने मुख्य धनकी सामग्री के साथ भरतके दर्शन करनेके लिये समीप आये ॥१८०॥ नमि और विनभि जो अन्य किसीको नहीं मिलनेवाली विद्याधरोंके देशकी मुख्य धनरूप सम्पत्ति भेंट में लाये थे उससे महाराज भरतको भारी संतोष हुआ था ।। १८१ ।। जिरा प्रकार नदियों के प्रवाहसे समुद्र पूर्ण हो जाता है उसी प्रकार उस समय नमि और विनमिके द्वारा उपहार में लाये हुए कन्यारत्न आदि अनेक रत्नोंके समूहसे महाराज भरतकी इच्छा पूर्ण हो गई थी || १८२|| श्रीमान् भरतने राजा नमिकी बहिन सुभद्रा नामकी उत्तम कन्याके साथ
१ स्थलीम् ल०, ६०, इ० अ०, स० । २ सैन्यरच ल० | ३ विम् । ४ उद्घाटित । ५. पूर्वखण्डम् । ६ शीघ्रम् । ७ आगच्छन् । ८ क्षेत्र । ६ प्रभुं ल०, अ०, स०, ६०, ६० ॥ स्पावनीकृतया | ११ भगिनीम् । 'अमिनी स्वया' इत्यभिधानात् । १२ परिणीतवान् ।
१० विद्यारे
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