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द्वात्रिंशत्तमं पर्व
१२७ इति वृष्टापदानं तं तुष्टुवुर्नाकिनायकाः । विष्टचा' स्म वर्धयन्त्येनं सागनाश्च नभश्चराः ॥ १६२॥ भूयः प्रोत्साहितो देवैः जयोद्योगमनूनयन् । गङगापातमभीयाय' व्याहूत इव तत्स्वनैः ॥१६३॥ गलद्गङगाम्बुनिष्ठ घूताः शीकरा मदशीकरैः । सम्मूर्द्ध नृपेभाणां व्यात्युक्षों वा तितांसवः ॥ १६४ ॥ पतद्गङगाजलावर्तपरिर्वाद्धतकौतुकः । प्रत्याग्राहि स तत्पाते गङगावेव्या धृतार्घया ॥ १६५॥ सिंहासने निवेश्यैनं प्राङ्मुखं सुखशीतलैः । सोऽभ्यषिञ्चज्जलैर्गाङगैः शशाङककरहासिभिः ॥ १६६ ॥ कृतमङ्गलसङगीतनान्दीतर्य रवाकुलम् । निर्वर्त्य मज्जनं जिष्णुः भेंजे मण्डनमप्यतः ॥ १६७॥ प्रथमं व्यतरत् प्रांशु रत्नांशुस्थगिताम्बरम् । सेन्द्रचापमिवाद्रीन्द्रशिखरं हरिविष्टरम् ॥१६८॥ चिरं वर्द्धस्व वद्धिष्णो जीवतान्नन्दताद् भवान् । इत्यनन्तरमाशास्य तिरोऽभूत् सा विसर्जिता ॥ १६६ ॥ अनुगगातटं सैन्यैः श्राव्रजन्विषयाधिपैः । सिषेवे पवमानैश्च गङगाम्बुकणवाहिभिः ॥ १७० ॥ गङ्गातटवनोपान्तनिवेशेषु विशाम्पतिम् । सुखयामासुरन्वीपमाया " ता बनमारुताः २ ॥ १७१ ॥
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उसे लीला मात्र में ही उल्लंघन कर दिया है और इसकी कीर्ति स्थल-कमलिनीके समान हिमालय पर्वतकी शिखरपर आरूढ़ हो गई है । इस प्रकार जिनका पराक्रम देख लिया गया है ऐसे उन भरत महाराजकी बड़े बड़े देव भी स्तुति कर रहे थे और अपनी अपनी स्त्रियोंसे सहित विद्याधर लोग भी भाग्यसे उन्हें बढ़ा रहे थे अर्थात् आशीर्वाद दे रहे थे ।। १६०-१६२ ॥
तदनन्तर- जिन्हें देवोंने फिर भी उत्साहित किया है ऐसे महाराज भरत अपने विजय के उद्योगको कम न करते हुए गङ्गापात ( जहाँ हिमवान् पर्वतसे गङ्गा नदी पड़ती है उसे गङ्गापात कहते हैं) के सन्मुख इस प्रकार गये मानो उसके शब्दोंके द्वारा बुलाये ही गये हों ।।१६३।। ऊपरसे गिरती हुई गङ्गा नदीके जलके समीपसे उछटे हुए छोटे छोटे जलकण राजाओंके हाथियों के मदकी बूंदोंके साथ इस प्रकार मिल रहे थे मानो वे दोनों परस्पर फाग ही खेलना चाहते हों अर्थात् एक दूसरेको सींचना ही चाहते हों ॥ १६४ ॥ पड़ते हुए गङ्गाजलकी भंवरोंसे जिसका कौतूहल बढ़ रहा है ऐसे भरतका गङ्गापातके स्थानपर अर्घ धारण करनेवाली गङ्गा देवीने सामने आकर सत्कार किया ।। १६५ ॥ गङ्गादेवीने चक्रवर्ती भरतको पूर्व दिशाकी ओर मुख कर सिंहासनपर बैठाया और फिर सुखकारी, शीतल तथा चन्द्रमाकी किरणोंकी हँसी करनेवाले गङ्गा नदीके जलसे उनका अभिषेक किया ॥ १६६ ॥ | जिसमें मंगल संगीत, आशीर्वाद वचन और तुरही आदि बाजोंके शब्द मिले हुए हैं ऐसे अभिषेकको समाप्त कर विजयशील भरतने उसी गङ्गादेवी से सब वस्त्राभूषण भी प्राप्त किये ॥ १६७ ॥ तदनन्तर देदीप्यमान रत्नोंकी किरणोंसे जिसने आकाश भी व्याप्त कर लिया है और जो इन्द्रधनुष सहित सुमेरु पर्वतकी शिखरके समान जान पड़ता है ऐसा एक सिंहासन गङ्गादेवीने भरतके लिये समर्पित किया ।। १६८ ।। और फिर 'सदा बढ़नेवाले हे महाराज भरत आप चिर कालतक बढ़ते रहिये, चिरकाल तक जीवित रहिये और चिरकाल तक आनन्दित रहिये अथवा समृद्धिमान् रहिये इस प्रकार आशीर्वाद देकर भरत महाराजके द्वारा बिदा की हुई वह गङ्गादेवी तिरोहित हो गई ।। १६९॥
अथानन्तर-सेनाके साथ साथ गङ्गा के किनारे किनारे जाते हुए भरतकी अनेक देशोंके स्वामी-राजाओंने और गङ्गा नदीके जलकी बूंदोंको धारण करनेवाले वायुने सेवा की थी ।। १७० ॥ गङ्गा किनारे के वनोंके समीपवर्ती भागों में पीछेसे आता हुआ वनका वायु चक्रवर्ती
१ दृष्टसामर्थ्यम् । दृष्टावदानं प० अ० । दृष्टवदान ल० । २ सन्तोषेण । ३ अनूनं कुर्वन् संवर्द्धयन्नित्यर्थः । ४ अभिमुखमगच्छत् । ५ प्रसरन्तिस्म । ६ नृपसम्बन्धिगजानाम् । ७ परस्परसेचनम् । ८ विस्तारितुमिच्छवः । ६ ददी । १० उन्नत । ११ अनुकूलताम् । १२ वनवायवः ल० ।
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