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द्वात्रिंशत्तम पर्व
११३ जगत्स्थितिरिवानाद्या घटितेव' च केनचित् । जैनी श्रुतिरिवोपात्तगाम्भीर्या मुनिभिर्मता ॥१०॥ व्यायता जीविताशव मूच्छेव च तमोमयी । गतेवोल्लाघतां कृच्छात मुक्तोष्मा शोधितोदरा ॥११॥ कुटीव च प्रसूताया निषिद्धान्यप्रवेशना। कृतरक्षाविधिरि धृतमङगलसंविधिः॥१२॥ तामालोक्य बलं जिष्णोः दूरादासीत्स साध्यसम् । तमसा सूचिभेद्येन कज्जलेनेव सम्भृताम् ॥१३॥ चक्रिणा ज्ञापितो भूयः सेनानीः सपुरोहितः। तत्तमोनिर्गमोपाय प्रयत्नमकरोत्ततः ॥१४॥ काकिणोमणिरत्नाभ्यां प्रतियोजनमालिखत् । गुहाभित्तिद्वये सूर्यसोमयोर्मण्डलद्वयम् ॥१५॥ तत्प्रकाशकृतोद्योतं सज्योत्स्नातमसन्निधिम् । गुहामध्यमपध्वान्तं व्यगाहत ततो बलम् ॥१६॥ चक्ररत्नज्वलद्दीपे ससेनान्या पुरः स्थिते । बलं तदनुमार्गेण प्रविभज्य द्विधा ययौ ॥१७॥ परिसिन्धु नदीस्रोतः प्राक् पश्चाच्चोभयोः पथोः । बलं प्राय ज्जलं सिन्धोः उपयुज्योपयुज्य तत्॥१८॥ पथि द्वैधे" स्थिता तस्मिन् सेनाग्रण्या नियन्त्रिता । सा चमूः संशयद्वैधं तदा प्रापद् दिगाश्रयम् ॥१६॥ ततः प्रयाणकः कश्चित् प्रभूतयवसोदकः । गुहार्द्धसम्मितां भूमि व्यतीयाय यतिविशाम् ॥२०॥
होती थी, अत्यन्त गम्भीर (गहरी) होनेके कारण जिसे मुनि लोग जिनवाणीके समान मानते थे क्योंकि जिनवाणी भी अन्त्यन्त गम्भीर (गूढ़ अर्थोसे भरी हुई) होती है। जो जीवित रहने की आशाके समान लम्बी थी, मूर्छाके समान अन्धकारमयी थी, गरमी निकल जाने तथा भीतरका प्रदेश शुद्ध हो जानस जो नीरोग अवस्थाको प्राप्त हुईक समान जान पड़ती थी, जिसम चक्रवर्तीकी सेनाको छोड़कर अन्य किसीका प्रवेश करना मना था, जिसके द्वारपर रक्षाकी सब विधि की गई थी, जिसके समीप मंगलद्रव्य रक्खे हुए थे और इसलिये जो प्रसूता (बच्चा उत्पन्न करनेवाली) स्त्रीकी कुटी (प्रसूति.गृह) के समान जान पड़ती थी ।।६-१२॥ सुई की नोकसे भी जिसका भेद नहीं हो सकता ऐसे कज्जलके समान गाढ़ अन्धकारसे भरी हुई उस गुफाको देखकर चक्रवर्तीकी सेना दूरसे ही भयभीत हो गई थी॥१३॥ तदनन्तर जिसे चक्रवर्ती ने आज्ञा दी है ऐसे सेनापतिने पुरोहितके साथ साथ, उस अन्धकारसे निकलनेका उपाय करने के लिये फिर प्रयत्न किया ॥१४॥ उन्होंने गुफाकी दोनों ओरकी दीवालोंपर काकिणी और चूड़ामणि रत्नसे एक एक योजनकी दूरीपर सूर्य और चन्द्रमाके मण्डल लिखे ॥१५॥ तदनन्तर उन मण्डलोंके प्रकाशसे जिसमें प्रकाश किया जा रहा है, चांदनी और धूप दोनों ही जिसमें मिल रहे हैं तथा जिसका सब अन्धकार नष्ट हो गया है, ऐसे गुफाके मध्य भागमें सेनाने प्रवेश किया ॥१६॥ आगे आगे सेनापतिके साथ साथ चक्ररत्नरूपी देदीप्यमान दीपक चल रहा था और उसके पीछे पीछे उसी मार्गसे दो भागोंमें विभक्त होकर सेना चल रही थी ॥१७॥ वह सेना, सिन्धु नदीके प्रवाहके पूर्व तथा पश्चिमकी ओरके दोनों मार्गोमें सिन्धु नदीके जलका उपयोग करती हुई जा रही थी ॥१८॥ उन दोनों मार्गोपर चलती हुई तथा सेनापतिके द्वारा श की हुई वह सेना उरा समय दिशाओं सम्बन्धी संशयकी द्विविधताको प्राप्त हो रही थी अर्थात् इसे इस बातका संशय हो रहा था कि पूर्व दिशा कौन है ? और पश्चिम दिशा कौन है ? ॥१९।। तदनन्तर जिनमें घास और पानी अधिक है ऐसे कितने ही मुकाम चलकर महाराज
१ निमितेव। २ केनचित पूरुषेण । ३ परमागमः । ४ ऋजत्वं गतेव। उल्लाघो निर्गतो गदात् । (शोधितान्तरा ल०। ६ गुहाम्। ७ सेनापतिसमन्विते । ८ सिन्धुनदीप्रवाहं वर्जयित्वा । परिशब्दस्य जनार्थत्वात् । ६ पश्चात् पर्वापर । १० अगच्छत् । ११ द्विप्रकारवती। १२ नियमिता । १३ संशयभेदं
यविनाशं वा। १४ उपदेशाधयम् वा संशयभेदं प्राप। पूर्वादिदिगभेदे सेना सन्देहवती जातेत्यर्थः । १५ तृण, घास । घासो यवसं तृणमर्जमित्यभिधानात् । १६ गुहानामर्द्धप्रमिताम् । १७ अत्यगात् ।
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