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द्वात्रिंशत्तम पर्व
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निस्सपत्नां महीमेनां कुर्वन्नडिनिधीश्वरः । प्रा हिमाद्रितटाद् भूयः प्रवाणमकरोद् बलैः ॥७८॥ सिन्धुरोधोभुवः क्षुन्दन् प्रयाणे जयसिन्धुरैः । सिन्धुप्रपात मासीदन् सिन्धुदेव्या न्यषेचि सः ॥७॥ ज्ञात्वा समागतं जिष्णु देवी स्वावासगोचरम् । उपेयाय समद्धत्य रत्नार्घ सपरिच्छदा॥८॥ पुण्यः सिन्धुजलैरेनं हेमकुम्भशतोद्धृतः । साभ्यषिञ्चत् स्वहस्तेन भद्रासननिवेशितम् ॥८१॥ कृतमङगलनेपथ्यम् अभ्यनन्दज्जयाशिषा । देव त्वद्दर्शनादध पूताऽस्मीत्यवदच्च तम् ॥८२॥ तत्र भद्रासनं दिव्यं लब्ध्वा तदुपढौकितम् । कृतानुव्रजनां० किञ्चित् सिन्धुदेवों व्यसर्जयत् ॥८३॥ हिमाचलमनुप्राप्तः तत्तटानि जयं जयम् । कश्चित्प्रयाणकैः प्रापत् हिमवत्कूटसन्निधिम् ॥८४॥ पुरोहितसखस्तत्र कृतोपवसनक्रियः । अध्यशेत३ शुचि शय्यां दिव्यास्त्राण्यधिवासयन् ॥८॥ विधिरेष नचाशक्तिरिति५ सम्भावितो न पैः । स राज्यमकरोच्चापं.६ वजकाण्डमयत्नतः ॥८६॥ तत्रामोघं शरं दिव्यं °समधत्तोर्ध्वगामिनम् । वैशाखस्थानमास्थाय८ स्वनामाक्षरचिह्नितम् ॥७॥ मुक्तसिंहप्रणादेन यदा मुक्तः शरोऽमुना । तदा सुरगणैस्तुष्टः मुक्तोऽस्य कुसुमाञ्जलिः ॥८॥
की ॥७७।। इस समस्त पृथिवीको शत्रुरहित करते हुए प्रथम निधिपति-चक्रवर्तीने फिर अपनी सेनाके साथ साथ हिमवान् पर्वतके किनारे तक गमन किया ।।७८।। गमन करते समय अपने विजयी हाथियोंके द्वारा सिन्धु नदीके किनारेकी भूमिको खूदते हुए भरतेश्वर जब सिन्धुप्रपात पर पहुँचे तब सिन्धु देवीने उनका अभिषेक किया ॥७९।। वह देवी भरतको अपने निवास स्थानके समीप आया हुआ जानकर रत्नोंका अर्घ लेकर परिवारके साथ उनके पास आई थी ॥८०॥ और उसने अपने हाथसे सुवर्णके सैकड़ों कलशोंमें भरे हुए सिन्धु नदीके पवित्र जलरो भद्रासनपर बैठे हुए महाराज भरतका अभिषेक किया था ॥८१।। अभिषेक करनेके बाद उस देवीने मंगलरूप वस्त्राभूषण पहने हए महाराज भरतको विजयसचक आशीर्वादों से आनन्दित किया तथा यह भी कहा कि हे देव, आज आपके दर्शनसे में पवित्र हुई हूँ ।।८२।। वहां उस सिन्धु देवीका दिया हुआ दिव्य भद्रासन प्राप्त कर भरतने आगेके लिये प्रस्थान किया
और कुछ दूर तक पीछे पीछे आती हुई सिन्धु देवीको बिदा किया ॥८३॥ हिमवान् पर्वत के समीप पहुंचकर उसके किनारोंको जीतते हुए भरत कितने ही मुकाम चलकर हिमवत् कूट के निकट जा पहुंचे ॥८४।। वहाँ उन्होंने पुरोहितके साथ साथ उपवास कर और दिव्य अस्त्रों की पूजा कर डाभकी पवित्र शय्यापर शयन किया ॥८५।। अस्त्रोंकी पूजा करना यह एक प्रकारकी विधि ही है, कुछ चक्रवर्तीका असमर्थपना नहीं है, ऐसा विचार कर राजाओंने जिनका सन्मान किया है ऐसे भरतराजने बिना प्रयत्नके ही अपना वजूकाण्ड नामका धनुष डोरीसे सहित किया ॥८६॥ और वैशाख नामका आसन लगाकर अपने नामके अक्षरोंसे चिह्नित तथा ऊपरकी ओर जानेवाला अपना अमोघ (अव्यर्थ ) दिव्य बाण उस धनुषपर रक्खा ॥८७॥ जिस समय सिंहनाद करते हुए भरतने वह बाण छोड़ा था उस समय देवोंके समूहने संतुष्ट होकर उनपर फूलोंकी अञ्जलियाँ छोड़ी थी , अर्थात् फूलोंकी वर्षा की थी ॥८८।।
१ उत्कृष्टनिधिपतिः । 'वरे त्वर्वागित्यभिधानात् । २ सिन्धुनदीतीरभूमीः । ३ सञ्चूर्णयन् । ४ सिन्धुनदीपतनकुण्डम् । ५ आगच्छन् । ६ न्यषेवि द० । सेवते स्म । ७ उपाययौ । ८ सपरिकरा। ६ पवित्रः । १० विहितानुगमनाम् । ११ जयन् जयन् ल०, अ०, इ०, । जयं जयन् प०, स०। १२ हिमवन्नामकूट । १३ अधिशेते स्म । १४ मन्त्रैरभिपूजयन् । १५ शक्यभावो न। १६ मौर्वीसहितम् । १७ सन्धानमकरोत् । १८ वैशाखस्थान स्थित्वा, वितस्त्यन्तरेण स्थिते पादद्वये विशाखः, तथा चोक्तं धनुर्वेदे। वामपादप्रसार दक्षिणसंकोचे प्रत्यलीढ दक्षिणजंघाप्रसारे वामसंकोचे चालीढम् । तुल्यपादयगम् समपदम् । वितस्त्यन्तरेण स्थिते पादद्वयं विशाखः, मण्डलाकृति पादयं मण्डलम् । १६ चक्रिणा ।
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