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द्वात्रिंशत्तमं पर्व
तदास्तां समरारम्भः सम्भाव्यो दुर्गसंश्रयः । तदाश्रितैरनायासात् जेतुं शक्यो रिपुर्महान् ॥५४॥ स्वभावदुर्गमेतन्नः क्षेत्र केनाभिभूयते। हिमवद्विजया द्रिगङगा'सिन्धुतटावधि ॥५५॥ अन्यच्च देवताः सन्ति सत्यमस्मत्कुलोचिताः । नागा मेघमुखा नाम ते निरुन्धन्तु शात्रवान् ॥५६॥ इति तद्वचनाज्जातजयाशंसौ जनेश्वरौ । देवतान स्मृति सद्यः चक्रतुः कृतपूजनौ ॥५७॥ ततस्ते जलदाकारधारिणो घनर्गाजताः । परितो वृष्टिमातेन : सानिलामनिलाशनाः ॥५॥ तज्जलं जलदोद्गीर्ण बलमाप्लाव्य जैष्णवम् । अधस्तिर्यगथोऽवं च समन्तादभ्यदुद्रवत् ॥५६॥ न चेल क्नोपमस्यासीत् शिबिरे वृष्टिरीशितुः । बहिरेकार्णवं कृत्स्नम् अकरोद् व्याप्य रोदसी ॥६०॥ छत्ररत्नमुपर्यासीच्चर्मरत्नमयोऽभवत् । ताभ्यामावेष्टय तद्द्धं बलं स्य तमिवाभितः ॥६॥ मध्यरत्नद्वयस्यास्य स्थितमासप्तमाद् दिनात् । जलप्लव बलं भर्तुः व्यक्तमण्डायितं तदा ॥६२॥ चक्ररत्नकृतोद्योते रुद्धद्वादशयोजने। तत्राण्डके स्थितं जिष्णोः निराबाधमभूद् बलम् ॥६३॥ प्रविभक्तचतुरि सेनान्यान्तःसुरक्षितम् । बहिर्जयकुमारण ररक्षे किल तबलम् ॥६४॥
तदा पटकुटीभेदाः कीडिकाश्च विशडाकटाः । कृताः स्थपतिरत्नेन रथाश्चाम्बर गोचराः ॥६५॥ कुछ भी सन्देह नहीं है ॥५३॥ इसलिये युद्धका उद्योग दूर रहे, हम लोगोंको किसी किलेका आश्रय लेना चाहिये, क्योंकि किलेका आश्रय लेनेवाले पुरुष बड़ेसे बड़े शत्रुको सहज ही जीत सकते हैं ॥५४॥ हिमवान् पर्वतसे विजयार्ध पर्वत तक और गङ्गा नदीसे सिन्धु नदीके किनारे तक का यह हमारा क्षेत्र स्वभावसे ही किलेके समान है, इसका पराभव कौन कर सकता है ? इसे कौन जीत सकता है ? ॥५५॥ और दूसरी बात यह भी है कि हमारी कुल-परम्परासे चले आये नागमख और मेघमख नामके जो देव हैं वे अवश्य ही शत्रओंको रोक लेंगे ॥५६॥ इस प्रकार मन्त्रियोंके वचनोंसे जिन्हें विजय करनेकी इच्छा उत्पन्न हुई है ऐसे उन दोनों राजाओं ने शीघ्र ही पूजन कर देवताओंका स्मरण किया ॥५७॥ स्मरण करते ही नागमुख देव, बादलों का आकार धारण कर घनघोर गर्जना करते हुए चारों ओर झंझा वायुके साथ साथ जलकी वृष्टि करने लगे ॥५७॥ मेघोंके द्वारा बरसाया हुआ वह जल भरतेश्वरकी सेनाको डुबोकर ऊपर नीचे तथा अगल बगल चारों ओर बहने लगा ॥५८। यद्यपि वह जल इतना अधिक
था कि उसने आकाश और पृथिवीके अन्तरालको व्याप्त कर बाहर एक समुद्र सा बना दिया था परन्तु चक्रवर्तीके शिबिर (छावनी) में वस्त्रका एक टुकड़ा भिगोने योग्य भी वृष्टि नहीं हुई थी ॥५९-६०।। उस समय भरतकी सेनाके ऊपर छत्ररत्न था और नीचे चर्मरत्न था, उन दोनों रत्नोंसे घिरकर रुकी हुई सेना ऐसी मालूम होती थी मानो चारों ओरसे सी ही दी गई हो अर्थात् चर्मरत्न और छत्ररत्न इन दोनोंमें चारों ओरसे टांके लगाकर बीच में ही रोक दी गई हो ॥६१॥ उस जलके प्रवाहमें भरतकी वह सेना सात दिनतक दोनों रत्नोंके भीतर ठहरी थी और उस समय वह ठीक अंडाके समान जान पड़ती थी॥६२।। जिसमें चक्ररत्नके द्वारा प्रकाश किया जा रहा है ऐसे उस बारह योजन लम्बे-चौड़े अण्डाकार तम्बूमें ठहरी हुई भरतकी सेना सब तरहकी पीड़ासे रहित थी ॥६३॥ उस बड़े तम्ब में चारों दिशाओंमें चार दरवाजे विभक्त किये गये थे, उसके भीतरकी रक्षा सेनापतिने की थी और बाहरसे जयकुमार उस सेनाकी रक्षा कर रहे थे ।।६४।। उस समय सिलावट रत्नने अनेक प्रकारके कपड़े के तम्बू, घासकी बड़ी बड़ी झोपड़ियां और आकाशमें चलने वाले रथ भी तैयार किये थे ॥६५॥
१ गाङगसिन्ध-ल०। २ नागमेघ-ल० । ३ नागाः । ४ जिष्णोश्चक्रिण: सम्बन्धि । ५ अभिधावति स्म। ६ पटमा यथा भवति । ७ ऊतम् तन्तुना सम्बद्धमित्यर्थः । ८ अण्डमिवाचरितम् । ६ पञ्जरे। १० कीटिका: कुटीराः, शालाः । किटिकाश्च ल०, द०, अ०, प०, स० । ११ विशालाः । १२ रथाः संचरगोचराः प० ।
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