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महापुराणम् प्रसाधितानि दुर्गाणि कृतं चाशक्यसाधनम् । परचक्रमवष्टब्ध' चक्रिणो जयसाधनैः ॥४३॥ बलवान्नाभियोक्तव्यो रक्षणीयाश्च संश्रिताः। यतितव्यं क्षितित्राणे जिगीषोत्तमीदशम् ॥४४॥ इत्यलङघ्यबलश्चक्री चक्ररत्नमनुवजन् । कियतीमपि तां भूमिम् अवाष्ट म्भीत् स्वसाधनः ॥४५॥ तावच्च परचक्रेण स्वचक्रस्य पराभवम् । चिलातावर्तनामानौ प्रभू शुश्रुवतुः किल ॥४६॥ अभूतपूर्वमेतन्नौ परचक्रमुपस्थितम् । व्यसनं प्रतिकर्तव्यम् इत्यास्तां सङगतौ मिथः ॥४७॥ ततो धनुर्धरप्रायं सहाश्वीयं सहास्तिकम् । इतोऽमुतश्च संजग्मे तत्सैन्यं म्लेच्छराजयोः ॥४८॥ कृतोच्चविग्रहारम्भौ संरम्भं प्रतिपद्य तौ। विक्रम्य' चक्रिणः सैन्यैः भेजतुविजिगीषुताम् ॥४६॥ तावच्च सुधियो धीराः कृतकार्याश्च मरित्रणः । निषिध्य तौ रणारम्भाद् वचः पथ्यमिदं जगुः ॥५०॥ न किञ्चिदप्यनालोच्य विधेयं सिद्धिकाम्यता । अनालोचितकार्याणां दवीयस्योऽर्थसिद्धयः ॥५१॥ कोऽयं प्रभुरवष्टम्भी कुतस्त्यो वा कियदलः१२ । बलवान् इत्यनालोच्य नाभिषेण्यः कथञ्चन ॥५२॥ विजयार्द्धचलोल्लङघी नैष सामान्यमानुषः । दिव्यो५ दिव्यानुभावो वा भवेदेष न संशयः ॥५३॥
--------- इधर उधर ही घूमती थीं ॥४२॥ चक्रवर्तीकी विजयी सेनाओंने अनेक किले अपने वश किये, जिन्हें कोई वश नहीं कर सकता था, ऐसे राजाओंको वश किया और शत्रुओंके देश घेरे ॥४३।। बलवान्के साथ युद्ध नहीं करना, शरणमें आये हुएकी रक्षा करना, और अपनी पृथिवीकी रक्षा करने में प्रयत्न करना यही विजयकी इच्छा करनेवाले राजाके योग्य आचरण हैं ॥४४॥ इस प्रकार जिनकी सेना अथवा पराक्रमको कोई उल्लंघन नहीं कर सकता ऐसे चक्रवर्ती भरतने चक्ररत्नके पीछे पीछे जाते हुए अपनी सेनाके द्वारा वहाँकी कितनी ही भूमिको अपने आधीन कर लिया ॥४५॥ इतने में ही चिलात और आवर्त नामके दो म्लेच्छ राजाओंने शत्रुओंकी सेनाके द्वारा अपनी सेनाका पराभव होता सुना ॥४६॥ हमारे देशमें शत्रुओंकी सेना आकर उपस्थित होना यह हम दोनोंके लिये बिलकुल नई बात है, इस आये हुए संकटका हमें प्रतिकार करना चाहिये ऐसा विचार कर वे दोनों ही म्लेच्छ राजा परस्पर मिल गये ॥४७॥ तदनन्तर जिसमें प्रायः करके धनुष धारण करनेवाले योद्धा हैं, तथा जो हाथियों और घोड़ोंके समूहसे सहित हैं ऐसी उन दोनों राजाओंकी सेना इधर उधरसे आकर इकटी मिल गई ॥४८॥ जिन्होंने भारी युद्ध करनेका उद्योग किया है ऐसे वे दोनों ही राजा क्रोधित होकर तथा परात्रम प्रकट कर चक्रवर्तीकी सेनाओंके साथ विजिगीषुपनको प्राप्त हुए अर्थात् उन्हें जीतनेकी इच्छासे उनके प्रतिद्वन्द्वी हो गये ॥४९॥ इसीके बीच, बुद्धिमान् धीरवीर तथा सफलतापूर्वक कार्य करनेवाले मंत्रियोंने उन दोनों राजाओंको युद्धके उद्योगसे रोककर नीचे लिखे अनुसार हितकारी वचन कहे ॥५०॥ हे प्रभो, सिद्धिकी इच्छा करनेवालोंको बिना विचारे कुछ भी नहीं करना चाहिये क्योंकि जो बिना विचारे कार्य करते हैं उनके कार्योंकी सिद्धि बहुत दूर हो जाती है ।।५१॥ हमारी सेनाको रोकनेवाला यह कौन राजा है ? कहांसे आया है ? इसकी सेना कितनी है
और यह कितना बलवान् है इन सब बातोंका विचार किये बिना ही उसकी सेनाके सन्मुख किसी भी तरह नहीं जाना चाहिये ॥५२॥ विजयाई पर्वतको उल्लंघन करनेवाला यह कोई साधारण मनुष्य नहीं है, यह या तो कोई देव होगा या कोई दिव्य प्रभावका धारक होगा इसमें
१ व्याप्तम् । २ अभिषेणनीयः । ३ महतीम् । ४ वेष्टयति स्म। ५ परसैन्येन । ६ स्वराष्ट्रस्य । ७ आवयोः । ८ संगतमभूत् । अधिकां शक्ति विधाय। १० सिद्धिमिच्छता। ११ दूरतराः । १२ कियबल अ०, स०, इ०। १३ सेनया अभियातव्यः । १४ सर्वथा । १५ देवः । १६ दिव्यसामर्थ्यः।
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