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महापुराणम्
यत्रोन्मग्नजला सिन्धुः निमग्नजलया समम् । प्रविष्टा तिर्यगुद्देशं तं प्राप बलमीशितुः ॥ २१ ॥ तयोरारात्त सैन्यं निवेश्य भरतेश्वरः । वैषम्यमुभयोर्नद्योः प्रेक्षाञ्चक्रे सकौतुकम् ॥२२॥ Perseः पातयत्यन्या दार्वाद्युत्प्लावत्यरम् । मियोविरुद्धसाङगत्ये सङगते ते कथंचन ॥२३॥ नद्योरुत्तरणोपायः को न स्यादिति तर्कयन् । द्रुतमाह्वापयामास तत्रस्थः स्थपति पतिः ॥ २४ ॥ "तयोरारात्तटे पश्यन् उत्पतन्निषतज्जलम् । दृष्टचैव तुलयामार्स' जलाञ्जलिमिव क्षणम् ॥२५॥ उपर्युच्छ्वासयत्येनां महान् वायुः स्फुरन्नधः । वायुस्तदन्यथावृत्तिः प्रमुष्यां च विजृम्भते ॥२६॥ उपनाहादृतेः कोऽन्यः प्रतीकारोऽनयोरिति । भिषग्वर इवारेभे संक्रमोपक्रम" कृती ॥२७॥ श्रमानुषेष्वरण्येषु ये केचन महाद्रुमाः । सतानानाययामास दिव्यशक्त्यनुभावतः ॥ २८ ॥ सारदारुभिरुत्तम्भ्य स्तम्भानन्तर्जलस्थितान् । स्थपतिः स्थापयामास तेषामुपरि सङक्रमम्" ॥२६॥ बलव्यसनमाशङक्य" चिरवृत्तौ स धीरधीः । क्षणानिष्पादयामास सङक्रमं प्रभुशासनात् ॥३०॥ कृतः कलकलः सैन्यैः निष्ठिते सेतुकर्मणि । तदेव च बलं कृत्स्नम् उत्ततार परं तटम् ॥३१॥
भरतने गुफाकी आधी भूमि तय की ॥ २० ॥ और जहां पर 'उन्मग्नजला' नदी 'निमग्नजला' नदी के साथ साथ दोनों तरफकी दीवालोंके कुण्डोंसे निकलकर सिन्धु नदीमें प्रविष्ट होती है उस स्थानपर चक्रवर्तीकी सेना जा पहुँची ॥ २१ ॥ महाराज भरतेश्वर उन दोनों नदियों के किनारे के समीप ही सेना ठहराकर कौतुकके साथ उन दोनों नदियोंकी विषमता देखने लगे ||२२|| इन दोनोंमेंसे एक अर्थात् निमग्नजला तो लकड़ी आदिको शीघ्र ही नीचे ले जा रही है और दूसरी अर्थात् उन्मग्नजला प्रत्येक पदार्थको शीघ्र ही ऊपर की ओर उछाल रही है । यद्यपि ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं तथापि किसी प्रकार यहाँ आकर सिन्धु नदी में मिल रही हैं। ||२३|| इन नदियोंके उतरने का उपाय क्या है ? इस प्रकार विचार करते हुए चक्रवर्तीने वहां खड़े खड़े ही शीघ्र ही अपने स्थपति ( सिलावट ) रत्नको बुलाया ||२४|| जिनका पानी ऊपर तथा नीचे की ओर जा रहा है ऐसी उन दोनों नदियोंको देखते हुए सिलावट रत्नने उन्हें अपनी दृष्टिमात्र से ही क्षणभरमें अंजलि भर जलके समान तुच्छ समझ लिया || २५ | उसने समझ लिया कि इस उन्मग्नजला नदीको इसके नीचे रहनेवाला महावायु ऊपर की ओर उछालता है और इस निमग्नजला नदीको उसके ऊपर रहनेवाला महावायु नीचेकी ओर ले जाता है ||२६|| इसलिये इन दोनोंका पुल बाँधने के सिवाय और क्या उपाय हो सकता है ऐसा विचार कर उत्तम वैद्यके समान कार्यकुशल सिलावट रत्नने उन नदियोंके पार होनेका उपाय अर्थात् पुल बाँधने का उपाय प्रारम्भ कर दिया ||२७|| उसने अपनी दिव्य शक्तिकी सामर्थ्य से निर्जन वनों में जो कुछ बड़े बड़े वृक्ष थे वे मँगवाये । भावार्थ -- अपने आश्रित देवोंके द्वारा सघन जंगलोंसे बड़े बड़े वृक्ष मँगवाये ||२८|| उसने मजबूत लकड़ियोंके द्वारा जलके भीतर मजबूत खम्भे खड़े कर उनपर पुल तैयार कर दिया ||२९|| अधिक समय लगनेपर सेनाक दुःख होगा इस बातका विचार कर उस गंभीर बुद्धिके धारक सिलावटने भरतेश्वरकी आ से क्षण भरमें ही पुल तैयार कर दिया था ||३०|| पुल तैयार होते ही सेनाओंने आनन्दसे कोलाहल किया और उसी समय चक्रवर्तीकी समस्त सेना उतरकर नदियोंके उस किनारे
१ यस्मिन् प्रदेशे । २ पूर्वापरभित्तिद्वयदण्डान् निर्गत्य । ३ प्रदेशम् । ४ काष्ठादि । ५ स तनदी द्वयम् ल०, इ० अ०, प०, स० I ६ ददर्शेत्यर्थः । 13 उत्पतनिपतरूपत्वादञ्जलियुक्तजलवत् ८ अधोगमनवृत्तिः । ६ बन्धनात् । १० सेतूपक्रमम् । ११ आनयति स्म । १३ जलं स्थिरात् ब० द० । जले स्थिरात् इ० । १४ स्तम्भानाम् । १५ सेतुम् । भविष्यन्तीति विशंक्य | १७ चिरकालेऽतीते सति । १८ अपरतीरम् ।
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१२ विन्यस्य १६ वलस्य पीड
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