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महापुराणम् स शरो दूरमुत्पत्य क्वचिदप्यस्खलद्गतिः। 'संप्राप्यद्धिमवत्कूटं तद्वेश्माकम्पयन् पतन् ॥८६॥ स मागधवदाध्याय' ज्ञातचक्रधरागमः । उच्चचाल चलन्मौलिः तनिवासी सुरोत्तमः ॥१०॥ सम्प्राप्तश्च तमुद्देशं यमध्यास्ते स्म चक्रभृत् । दरोपरुद्ध संरम्भो धनुासकृत्स्पृशन् ॥१॥ तुङगोऽयं हिमवानद्रिः अलङघ्यश्च पृथग्जनैः । लङघितोऽद्य त्वया देव त्वद्वत्तमतिमानुषम् ॥२॥ वि प्रकृष्टान्तराः क्वास्मदावासाः क्व भवच्छरः । तथाप्याकम्पितास्तेन पततैकपदे० वयम् ॥३॥ त्वत्प्रतापः शरव्याजात् उत्पतन् गगनाङगणम् । गणबद्धपदे कर्तुम् अस्मान् नातवान् ध्रुवम् ॥१४॥ विजिताब्धिः समाक्रान्तविजयाचग होदरः । हिमाद्रिशिखरेष्वद्य जम्भते ते जयोद्यमः१९ ॥६५॥ जयवादोऽनुवादोऽयं सिद्धदिग्विजयस्य ते। जयतात् नन्दताज्जिष्णो वद्धिषीष्ट भवानिति ॥१६॥ समुच्चरन् जयध्वानमुखरः स सुरैः समम् । प्रभु सभाजयामास सोपचारं सुरोत्तमः ॥७॥ अभिषिच्य च राजेन्द्र राजवद्विधिना" ददौ । गोशीर्षचन्दनं.५ सोऽस्मै सममौषधिमालया ॥८॥ त्वद्भक्तिवासिनो" देव दूरानमितमौलयः। देवास्त्वामानमन्त्येते त्वत्प्रसादाभिकाडिक्षणः ॥९॥
जिसकी गति कहीं भी स्खलित नहीं होती ऐसा वह वाण ऊपर की ओर दूरतक जाकर वहाँपर रहनेवाले देवके भवनमें पड़कर उस भवनको हिलाता हुआ हिमवत्कूटपर जा पहुँचा ॥८९।। मागध देवके समान कुछ विचार कर जिसने चक्रवर्तीका आगमन समझ लिया है ऐसा वहाँका रहने वाला देव अपना मस्तक झुकाता हुआ चला ॥९०।। और जिसने अपना कुछ क्रोध रोक लिया है ऐसा वह देव धनुषकी चापका स्पर्श करता हुआ उस स्थानपर जा पहुँचा जहाँपर कि चक्रवर्ती विराजमान थे ॥९१॥ वह देव भरतसे कहने लगा कि हे देव, यह हिमवान् पर्वत अत्यन्त ऊँचा है और साधारण पुरुषोंके द्वारा उल्लंघन करने योग्य नहीं है फिर भी आज आपने उसका उल्लंघन कर दिया है इसलिये आपका चरित्र मनुष्योंको उल्लंघन करनेवाला अर्थात् लोकोत्तर है ॥९२॥ हे देव, बहुत दूर बने हुए हम लोगोंके आवास कहाँ ? और आपका बाण कहां ? तथापि पड़ते हुए इस बाणने हम सबको एक ही साथ कम्पित कर दिया ॥९३॥ हे देव, यह आपका प्रताप बाणके व्याजसे आकाशमें उछलता हुआ ऐसा जान पड़ता था मानो हम लोगोंको गणबद्ध (चक्रवर्तीके आधीन रहनेवाली एक प्रकारकी देवोंकी सेना ) देवोंके स्थानपर नियुक्त होनेके लिये बुला ही रहा था ॥९४॥ जिसने समुद्रको भी जीत लिया है और विजया पर्वतकी गुफाओंके भीतर भी आक्रमण कर लिया है ऐसा यह आपका विजय करने का उद्यम आज हिमवान् पर्वतके शिखरोंपर भी फैल रहा है ॥९५॥ हे प्रभो, आपका समस्त दिग्विजय सिद्ध हो चुका है इसलिये हे जयशील, आपकी जय हो, आप समृद्धिमान् हों और सदा बढ़ते रहें इस प्रकार आपका जयजयकार बोलना पुनरुवत है ।।९६॥ इस प्रकार उच्चारण करता हआ जो जय जय शब्दोंस वाचाल हो रहा है ऐसा वह उत्तम देव अन्य अनेक उत्तम देवोंके साथ साथ सब तरहके उपचारोंसे भरतकी सेवा करने लगा ।।९७।। तथा राजाओंके योग्य विधिसे राजाधिराज भरतका अभिषेक कर उसने उनके लिये औषधियोंके समूहके साथ गोशीर्ष नामका चन्दन समर्पित किया ॥९८॥ और कहा कि हे देव, आपके क्षेत्रमें रहनेवाले ये देव आपकी प्रसन्नताकी इच्छा करते हुए दूरसे ही मस्तक झुकाकर आपके लिये नमस्कार
१ सम्प्रापद्धिम- प०, ल०। २ विचार्येत्यर्थः । ३ हिमवत्कटवासी। हेमवान्नाम । ४ ईषत्पीडित । ५ सामान्यैः । ६ दिव्यमित्यर्थः । ७ दूर । ८ भवतो बाणः । ६ शरेण । १० युगपत् । ११ जयोद्योगः । १२ सार्थकं पुनर्वचनमनुवादः । १३ सम्भावयामास । १४ राजाहविधानेन । १५ हरिचन्दनम् । १६ वनपुष्पमालया। १७ तव पालनक्षेत्रवासिनः ।
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