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महापुराणम् बहिः कलकलं श्रुत्वा किमेतदिति पार्थिवाः। करं व्यापारयामासः ऋद्धाः कौक्षेयक' प्रति ॥६६॥ ततश्चक्रधरादिष्टा गणबद्धामरास्तदा। नागानु त्सारयामासु': प्रारुष्टा' हुङकृतः क्षणात् ॥६७॥ बलवान कुरुराजोऽपि मुक्तसिंहाजितः । दिव्यास्त्ररजयन्नागान् रथं दिव्यमधिष्ठितः ॥६॥ तदा रणाङगणे वर्षन् शरधारामनारतम् । स रेजे धृतसन्नाहः प्रावृषेण्य इवाम्बुदः ॥६६॥ तन्मक्ता विशिखा दीप्रा रेजिर समराजिरे । द्रष्टुं तिरोहितानागान् दीपिका इव बोधिताः ॥७०॥ ततो निववृते जित्वा नागान् मेघमुखानसौ । कुमारो रणसंरम्भात् प्राप्तमेघस्वरश्रुतिः ॥७१॥ कुरुराजस्तदा स्फूर्जत्पर्जन्यस्तनितोजितैः। गजितनिर्जयन् मेघमुखान् ख्यातस्तदाज्ञया ॥७२॥ तोषितैरवदानेनर घोषितोऽस्य जयोऽमरैः । दन्ध्वनदुन्दुभिध्वानबधिरीकृतदिडामुखैः ॥७३॥ ततो दृष्टापदानोऽयं तुष्टुवे चक्रिणा मुहुः । नियोजितश्च सत्कृत्य वीरो वीराग्रणीपदे ॥७४॥ इन्द्रजाल इवामुष्मिन् व्यतिक्रान्तेऽहिविप्लवे । प्रत्यापत्तिमगाद् भूयो बलमाविर्भवज्जयम् ॥७॥ विध्वस्ते पन्नगानीके विबलौ म्लेच्छनायकौ । चक्रिणश्चरणावत्य भयभ्रान्तौ प्रणेमतुः ॥७६॥
धनं यशोधनं चास्मै कृतागः परिशोधनम् । दत्वा प्रसीद देवेति तो भूत्यत्वमुपेयतुः ॥७७॥ बाहर कोलाहल सुनकर 'यह क्या है' इस प्रकार कहते हुए राजाओंने क्रोधित होकर अपना हाथ तलवारकी ओर बढ़ाया ॥६६॥ तदनन्तर, उस समय जिन्हें चक्रवर्तीने आदेश दिया है ऐसे गणबद्ध जातिके देवोंने क्रुद्ध होकर अपने हुंकार शब्दोंके द्वारा क्षणभरमें नागमुख देवोंको हटा दिया ॥६७।। अतिशय बलवान् कुरुवंशी राजा जयकुमारने भी दिव्य रथपर बैठकर सिंह-गर्जना करते हए, दिव्य शस्त्रोंके द्वारा उन नागमुख देवोंको जीता ॥६८।। उस समय युद्धके आंगनमें निरन्तर बाणोंकी वर्षा करता हुआ और शरीरपर कवच धारण किये हुए वह जयकुमार वर्षाऋतुके बादलके समान सुशोभित हो रहा था ॥६९॥ जयकुमारके द्वारा छोडे हए वे देदीप्यमान बाण यद्धके आंगनमें ऐसे सशोभित हो रहे थे मानो छिपे हए नागमखों को देखने के लिये जलाये हुए दीपक ही हों ।।७०॥ तदनन्तर वह जयकुमार नागमुख और मेघमुख देवोंको जीतकर तथा मेघेश्वर नाम पाकर उस युद्धसे वापिस लौटा ॥७१।। उस समय वह जयकुमार बिजली गिरानक पहले भयकर शब्द करते हुए बादलोकी गर्जनाक अपनी तेज गर्जनाके द्वारा मेघमख देवोंको जीतता हआ मेघश्वर नामसे प्रसिद्ध हआ था ।।७२।। बार-बार बजते हुए दुन्दुभियोंके शब्दोंसे जिन्होंने समस्त दिशाएँ बहिरी कर दी हैं ऐसे देवों ने इस जयकुमारके पराक्रमसे सन्तुष्ट होकर इसका जयजयकार किया था ।।७३।। तदनन्तर जिसका पराक्रम देख लिया गया है ऐसे इस जयकुमारकी चक्रवर्तीने भी बार-बार प्रशंसा की
और उस वीरका सत्कार कर उन्होंने उसे मुख्य शूरवीरके पदपर नियुक्त किया ।।७४।। इन्द्रजालके समान वह नागमुख देवोंका उपद्रव शान्त हो जानेपर जिसकी जीत प्रकट हो रही है ऐसी वह भरतकी सेना पुनः स्वस्थताको प्राप्त हो गई अर्थात् उपद्रव टल जानेपर सुखका अनुभव करने लगी ॥७५।। नागमख देवोंकी सेनाके भाग जानेपर वे दोनों ही चिलात और आवर्त नामके म्लेच्छ राजा निर्बल हो गये और भयसे घबड़ाकर चक्रवर्तीके चरणोंके समीप आकर प्रणाम करने लगे ॥७६॥ उन्होंने अपराध क्षमा कराकर भरतके लिये बहुत सा धन तथा यशरूपी धन दिया और 'हे देव, प्रसन्न होइए' इस प्रकार कहकर उनकी दासता स्वीकार
१ खड्गम् । २ आज्ञापिताः। ३ पालयितान् चक्रुः । ४ क्रुद्धाः । ५ जयकुमारः । ६ धृतकवचः । ७ प्रावृषि भवः । ८ समरांगणे । ६ न्यवृतत्। १० प्राप्तमेघस्वरसंज्ञः । ११ मेघः । १२ पराक्रमेण । १३ दृष्टावदातोऽयं स०, ल०, द० । दृष्टावदानोऽयं द०, प० । दृष्टसामर्थ्यः । १४ स्तूयते स्म। १५ पूर्वस्थितिम् । स्वरूपात् प्रच्युतस्य पुनः स्वरूपे अवस्थानम्, आश्वासमित्यर्थः । १६ कृतदोषस्य परिशोधन यस्मात् तत् ।
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