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महापुराणम् इत्यस्याद्रः परां शोभा शंसत्युच्दर पुरोधसि । प्रशशंस तमनोन्द्रं सम्प्रीतो भरताधिपः ॥१२६॥ स्वभुक्तिक्षेत्रसीमानं सोऽभिनन्य हिमाचलम् । प्रत्याक्तत् प्रभुद्रष्टुं वृषभाद्रि कुतूहलात् ॥१३०॥ यो योजनशतोच्छायो नले तावच्च विस्तृतः। तदर्द्धविस्ततिर्मुनिं भवो मौलिरिवोद्गतः ।।१३१॥ यस्योत्संगम यो रम्याः कदली षण्डमण्डितः । सम्भोगाय नभोगानां काल्पन्ते स्म लतालयः ॥१३२॥ सनागम सनागैश्च सपुन्नागैः परिष्कृतम्। 'चतुपान्ते वनं सेन्यं मुच्यते जातु नामरैः ॥१३३॥ स्वतटस्फटिकोस्पताभादिग्वहरिनुखम् । शरदरिवारब्धवपुषं० सनभोजुषम् ॥१३४॥ तं शैलं भुवनस्यैकं ललाभेवर निरूपयन् १३ । फालयामास लक्ष्मीषान् स्वयशःप्रतिमागकाम् ॥१३॥ तमेकपाण्डुरं५ शैलम् शाकल्पान्तमनश्वरम् । स्वयशोराशिनीकाशं पश्यन्नभिननद सः ॥१३६॥ सोऽवलः प्रभुमावान्त'" मायान्तमखिलद्विषाम् । प्रत्यग्रहीदिवाभ्येत्य विध्वद्रयम्भिर्वनानिलः ॥१३७॥ तत्तटोपान्तविश्रान्तलचरोरगकिन्नरः। प्रोद्गीयमानममलं शश्रुवे स्वयशोऽमुना ।।१३८॥ जयलक्ष्मी नुखालोक मंगलादर्शविभमाः । तत्तटीभित्तयो जह: मनोऽस्य स्फटिकामलाः ॥१३६॥
है, अथवा इस पर्वतने अपने विस्तारसे लोकका बहुत कुछ अंश व्याप्त कर लिया है ।।१२८॥ इस प्रकार जब पुरोहित उस पर्वतकी उत्कृष्ट शोभाका वर्णन कर चुका तब भरतेश्वरने भी प्रसन्न होकर उस पर्वतकी प्रशंसा की ।।१२९।। अपने उपभोग करने योग्य क्षेत्रको सीमा स्वरूप हिगवान् पर्वतकी प्रशंसा कर महाराज भरत कुतूहलवश वृषभाचलको देखनेके लिये लौटे ॥१३०॥
जो सौ योजन ऊँचा है, मल तथा ऊपर कमसे सौ और पचास योजन चौड़ा है एवं ऊपर की ओर उठा हुआ होनेसे पृथिवीके मस्तकके समान जान पड़ता है। जिसके ऊपरके मनोहर प्रदेश केलोंके समूहसे सुशोभित लतागृहोंसे आवाशगामी देव तथा विद्याधरोंके उपयोग करने योग्य हैं, नाग सहजना और नागकेशरके वृक्षोंसे घिरे हुए तथा सेवन करने योग्य जिस पर्वत के समीपके वनोंको देव लोग कभी नहीं छोड़ते हैं। अपने तटपर लगे हुए स्फटिक मणियोंकी फैलती हुई प्रभासे जिलने समस्त दिशाएँ व्याप्त कर ली हैं, जिसका शरीर शरतुके बादलों से बना हुआ-सा जान पड़ता है और जो सदा देव तथा विद्याधरोंसे सहित रहता है, ऐसे उस पर्वतको लोकके एक आभूषशके समान देखते हुए श्रीमान् भरतने अपने यशका प्रतिविम्ब माना था ॥१३१-१३५॥ जो एक सफेद रंगका है और जो कल्पान्त काल तक कभी नष्ट नहीं होता ऐसे उस वृषभाचलको अपने यशकी राशिके समान देखते हुए महाराज भरत बहुत ही आनन्दित हुए थे ।। १३६।। उस समय वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो समस्त शत्रुओं की मायाको नष्ट करनेवाले चक्रवर्ती भरतको अपने सभीप आता हुआ जानकर चारों ओर बहनंबाल वनक वायुकद्वारा सामन जाकर उनका स्वागत-सत्कार ही कर रहा हो ।।१३७॥ वहांपर भरतने उस पर्वतके किनारेके सगीप विश्राम करते हुए विद्याधर नागकुमार और किन्नर देवों के द्वारा गाया हुआ अपना निर्मल यश भी सुना था ।।१३८।। स्फटिकके समान
१ स्तुति कुर्वति सति । २ प्रशंस्य। ३ व्याधुटितवान् । ४ गण्ड- अ०, द०, ०, ल०। ५ सार्थी भवन्ति । ६ नागवृक्षसहितम् । सर्जकतभिः । ८ यदुपान्तवनं ल०, १०, २०, अम०, रा० । हलिप्तदिडमुखम् । १० घटित । ११ आकाशशर्शनसहितम्, देव-विद्याधर-सहितम् । १२ तिलकम्। १३ विलोकयन् । १४ सदृशम् । १५ केवलं धवलम् । १६ समानम्। १७ आ रागन्तात् अयः आयः तस्य अन्तः अन्तक: नाश इत्यर्थः । विनत्यन्तकग समन्तालण्यनाशकमित्यर्थः । 'अयः गभावलो विनि' रित्यभिधानात् । १८ समन्तात् प्रसारिभिः । विनायक विप्लगञ्चतीत्यभिधानात् । १६ शुगो स्म ।
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