________________
१११
एकत्रिंशत्तम पर्व
शार्दूलविक्रीडितम् छत्रं चन्द्रकरापहासि रुचिरं चामीकरप्रोज्ज्वलद् -
दण्डं चामरयुग्मकं सरसरिडिण्डीरपिण्डच्छविः । रुक्माद्रेरिव संविभक्तमपरं कटं मगेन्द्रासनं
लेभेऽसौ विजयार्द्धनाथविजयाद्रत्नान्यथान्यान्यपि ॥१५॥ गीर्वाणः कृतमाल इप्यभिमतः संपूज्य तं सादरं
'प्रादादाभरणानि यानि न पुनस्तेषामिहास्युन्मितिः । सम्प्राट् तरचका दलङकृततन :कल्पद्रुमः पुष्पितो
मेरोः सानमिवाधितो मणिमयं सोऽध्यासितो विष्टरम् ॥१५॥
इत्या भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणश्रीमहापुराणसडग्रहे
विजया गुहाद्वारोद्धाटनवर्णनं नामकत्रिंशत्तम पर्व ॥३१॥
के द्वारा जिसमें सुखोंका सार प्रकट रहता है, और जिसमें अनेक सम्पदाओंका प्रसार रहता है ऐसा यह चक्रवर्तीका पद जिसके प्रसादसे लीला मात्रमें प्राप्त हो जाता है ऐसा यह जिनेन्द्र भगवान्का शासन सदा जयवन्त रहे ॥१५७।। महाराज भरतने विजयाध पर्वतक स्वामीको जीतकर उससे चन्द्रमाकी किरणोंकी हंसी करनेवाला सुन्दर छत्र, सुवर्णमय देदीप्यमान दण्डोंसे युक्त तथा गङ्गा नदीके फेनके समान कान्तिवाले दो मनोहर चमर, सुमेरु पर्वतसे अलग किये हुए उसके शिखरके समान सिंहासन तथा और भी अन्य अनेक रत्न प्राप्त किये थे ॥१५८।। 'कृतमाल' इस नागसे प्रसिद्ध देवने सत्कार कर महाराज भरतके लिये जो आभपण दिये थे इरा भरतक्षेत्रमें उनकी उपमा देने योग्य कोई भी पदार्थ नहीं है। उन अनुपम आभूषणोंगे जिनका शरीर अलंकृत हो रहा है और जो मणियोंके बने हुए सिंहासनपर विराजमान हैं ऐसे महाराज भरतेश्वर उस समय मेरु पर्वतकी शिखरपर स्थित फूले हुए कल्प वक्षके समान अत्यन्त सशोभित हो रहे थे ॥१५९।। इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके हिन्दी भाषानुवादमें बिजयार्ध पर्वतकी गुफाका द्वार उघाड़नेका वर्णन
करनेवाला इकतीसवां पर्व समाप्त हुआ ।
१ ददौ ।
२ उपमा ।
३ बभौ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org