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एकत्रिंशत्तम पर्व
जाता वयं चिरादद्य सनाथा इत्युदाशिषः । केचिच्चक्रधरस्याज्ञाम् अशठा प्रत्यपत्सत ॥१३७॥ संधिविग्रहयानादिषाड्गुण्यकृतविक्रमाः । बलात् प्रमाणिताः केचिद् ऐश्वर्यलवदूषिताः ॥१३८॥ कांश्चिद्दर्गाश्रितान् म्लेच्छान् अवस्कंदनिरोधनैः । सेनानीर्वशमानिन्ये नमत्यज्ञोऽधिकं क्षतः ॥१३६।। केचिद् बलरवष्टब्धाः तत्पीडां सोढमक्षमाः। शासन चक्रिणस्तस्थुः स्नेहो नापीलितात् खलात् ॥१४० इत्युपायरुपायज्ञः साधयम्लेच्छभभुजः । तेभ्यः कन्यादिरत्नानि प्रभो ग्यान्युपाहरत् ॥१४१॥ (धर्मकर्मबहि ता इत्यमी म्लेच्छका मताः । अन्यथाऽन्यः समाचारः आर्यावर्तेन ते समाः ॥१४२।। इति प्रसाध्य तां भूमिम् अभूमि धर्मकर्मणाम् । म्लेच्छराजबलै: सार्द्ध सेनानीय॑वृतत् पुनः ॥१४३॥ रराज राजराजस्य साश्वरत्नचम्पतिः । सिद्धदिग्विजयी जैत्रः प्रताप इव मूतिमान् ॥१४४॥ सतोरणामतिक्रम्य स सिन्धोर्वनवेदिकाम् । विगाढश्च० ससोपानां रूप्यारेस्तटवेदिकाम् ॥१४॥ प्रारूढो जगतीमद्रेः व्यू ढोरस्को महाभुजः । षड्भिर्मासैः प्रशान्तोमं सोऽध्यवासीद्र गुहामुखम्१३ ॥१४६।।
तत्रासीनश्च संशोध्य बद्दपायं गुहोदरम् । कृतारक्षाविधिः सम्यक् प्रत्यायाच्छिबिरं" प्रभोः ॥१४७॥ 'आज हम लोग बहुत दिनमें सनाथ हुए हैं इसलिये जोर जोरसे आशीर्वाद देते हुए कितने ही बुद्धिमान् लोगोंने चक्रवर्तीकी आज्ञा स्वीकृत की थी॥१३७॥ जिन्होंने सन्धि, विग्रह और यान आदि छह गुणोंमें अपना पराक्रम दिखाया था और जो थोड़ेसे ही ऐश्वर्यसे उन्मत्त हो गये थे ऐसे कितने ही राजाओंसे सेनापतिने जबर्दस्ती प्रणाम कराया था ॥१३८॥ किलेके भीतर रहनेवाले कितने ही म्लेच्छ राजाओंको सेनापतिने उनका चारों ओरसे आवागमन रोककर वश किया था सो ठीक ही है क्योंकि अज्ञानी लोग अधिक दुःखी किये जानेपर ही नम्रीभूत होते हैं ॥१३९।। कितने ही राजा लोग सेनाओंके द्वारा घिरकर उससे उत्पन्न हुए दुःखको सहन करनेके लिये असमर्थ हो चक्रवर्तीके शासनमें स्थित हए थे, सो ठीक ही है क्योंकि बिना पेले खल अर्थात् खलीसे स्नेह अर्थात् तेल उत्पन्न नहीं होता (पक्षमें बिना दुःखी किये हुए खल अर्थात् दुर्जनसे स्नेह अर्थात् प्रेम उत्पन्न नहीं होता) ॥१४०।। इस प्रकार उपायोंको जाननेवाले सेनापति ने अनेक उपायोंके द्वारा म्लेच्छ राजाओंको वश किया और उनसे चक्रवर्तीके उपभोगके योग्य कन्या आदि अनेक रत्न भेंटमें लिये ॥१४१।। ये लोग धर्मक्रियाओंसे रहित हैं इसलिये म्लेच्छ माने गये हैं, धर्मक्रियाओंके सिवाय अन्य आचरणोंसे आर्य खण्डमें उत्पन्न होनेवाले लोगोंके समान हैं ।।१४२।। इस प्रकार वह सेनापति, धर्म क्रियाओंसे रहित उस म्लेच्छभूमिको वश कर म्लेच्छराजाओंकी सेनाके साथ फिर वापिस लौटा ॥१४३॥ जिसने दिग्विजय कर लिया है, सबको जीतना ही जिसका स्वभाव है, और जो अश्वरत्नसे सहित है ऐसा वह राजाधिराज भरतका सेनापति ऐसा सशोभित हो रहा था मानो मतिमान प्रताप ही हो ॥१४४॥ तोरणोंसहित सिन्धु नदीके वनकी वेदीको उल्लंघन कर वह सेनापति सीढियों सहित विजया पर्वतके वनकी वेदीपर जा चढ़ा ॥१४५॥ जिसका वक्षःस्थल बहुत बड़ा है और जिसकी भुजाएँ बहुत लम्बी हैं ऐसा वह सेनापति पर्वतकी वेदिकापर चढ़कर छह महीने में जिसकी गर्मी शान्त हो गई है ऐसी गुफाके द्वारपर ठहर गया ॥१४६॥ वहाँ ठहरकर उसने अनेक विघ्नों से भरे हुए गुफाके भीतरी भागको शुद्ध (साफ) कराया और फिर अच्छी तरहसे उसकी रक्षा
१ उद्गताशीर्वचना:। २ निष्कपटवृत्तयो भूत्वा । ३ अंगीकारं कृतवन्तः । ४ धाटीनिरोधनैः । 'निग्रहस्तु निरोधः स्याद्' इत्यमरः । अभ्यासाधनात्मकनिग्रहः । उक्तं च विदाधचूडामणौ 'अभ्यवस्कन्दनं त्वभ्यासाधनम्' (घेरेका नाम) । ५ अधिकं पीड़ितो भूत्वा । ६ वेष्टिताः । ७ विवाहादिभिः । ८ पुण्यभूम्या आर्याखण्डनेत्यर्थः । 'अ.र्यावर्तः पुण्यभूमिः' इत्यभिधान.त् । ६ अस्थानम् । १० प्रविष्टः । ११ विशालवक्षस्थलः । १२ तस्थौ। १३ गुहाद्वारम् । १४ स्कन्धावार प्रत्यगात् ।
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