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एकत्रिंशत्तमं पर्व
वटस्थान' वटस्थांश्च' कूटस्थान् कोटरोटजात्' । 'असपाटान् क्षपाटांश्च विद्धि नः सार्व सर्वगान् ॥ ११३॥ इति प्रशान्त मोजस्वि वचः सम्भाव्य सादरम् । सोऽमरो वित 'तारास्नं भूषणानि चतुर्दश ॥ ११४ ॥ तान्यनन्योपलभ्यानि प्राप्य चकी परां सुदम् । भेजे तत्कृत" सत्कारैः सुरः सोऽय्याप सम्भवम् ॥ ११५ ॥ तं रूप्याद्विगुहाद्वारप्रवेशोपायशंसिनम् । प्रविसज्यं स्वसेनान्यं प्राहिणोत् प्रभुरप्रतः ॥ ११६ ॥ त्वमुद्घाट्य गुहाद्वारं यावन्निर्वाति" सा गुहा । तावत् पाश्चात्यखण्डस्य निर्जयाय कुरूद्यमम् ॥११७॥ इति चक्रधरादेशं मूर्ध्ना मायमिवोद्वहन् । कृतमालामरोद्दिष्टकृत्स्नोपायप्रयोगवित् ॥ ११८ ॥ कृती कतिपयैरेष तुरङ्गः सपरिच्छदैः । प्रतस्थ वाजिरत्नेन दण्डपाणिश्चमूपतिः ॥ ११६॥ किंचिच्चान्तरमुल्लंध्य स सिन्धोर्वनवेदिकाम् । विगाह्य विजयार्द्धस्य संप्रापत् तटवेदिकाम् ॥ १२०॥ तत्सोपानेन रूप्याद्रेः श्रारुह्य जगतीतलम् । प्रत्यङमुखो" गुहोत्सङ "गम् श्राससाद चमूपतिः ॥ १२१ ॥ जयताच्चक्रवर्तीति सोऽश्वरत्नमधिष्ठितः " । दण्डेन ताडयामास गुहाद्वारं स्फुरद्ध्वनिः ॥ १२२ ॥ दण्ड रत्नाभिघातेन गुहाद्वारे निरगंले" । तद्गर्भाद् बलवानूष्मा निर्ययौ किल संततः ॥ १२३ ॥ दधद्दण्डाभिघातोत्थं डकारमरपुटम् । सवेदनमिवास्वेदि निर्गतासु गुहोष्मणा ॥ १२४ ॥ हुआ न हो ॥ ११२ ॥ हे सार्व अर्थात् सबका हित करनेवाले, वटके वृक्षोंपर, छोटे छोटे गड्ढों में, पहाड़ोंकी शिखरोंपर, वृक्षोंकी खोलों और पत्तोंकी झोपड़ियों में रहनेवाले तथा दिन और रात्रिमें भ्रमण करनेवाले हम लोगोंको आप सब जगह जाने वाले समझिये ॥ ११३॥ इस प्रकार आदर सहित शान्त और ओजपूर्ण वचन कहकर उस देवने भरतके लिये चौदह आभूषण दिये ||११४ ।। जो किसी दूसरेको प्राप्त नहीं हो सकते थे ऐसे उन आभूषणोंको पाकर चक्रवर्ती परम हर्षको प्राप्त हुए और चक्रवर्तीके द्वारा किये हुए सत्कारोंसे वह देव भी अत्यन्त हर्षको प्राप्त हुआ ।। ११५ ॥ तदनंतर विजयार्ध पर्वतकी गुफाके द्वारसे प्रवेश करनेका उपाय बतलाने वाले उस देवको भरत चक्रवर्तीने बिदा किया और गुफाका द्वार खोलनेके लिये सबसे आगे अपना सेनापति भेजा । ११६ ॥ चक्रवर्तीने सेनापतिसे कहा कि तुम गुफाका द्वार उघाड़कर जब तक गुफा शान्त हो तब तक पश्चिम खण्डको जीतनेका उद्योग करो ।। ११७ ।। इस प्रकार चक्रवर्तीकी आज्ञाको मालाके समान मस्तकपर धारण करता हुआ और कृतमाल देवके द्वारा बतलाये हुए समस्त उपायों के प्रयोगको जाननेवाला वह चतुर सेनापति कुछ घोड़े और सैनिकों के साथ दंडरत्न हाथ में लेकर अश्वरत्नपर आरूढ़ होकर चला ॥११८-११९॥ थोड़ी दूर जाकर तथा सिन्धु नदीके वनकी वेदीको उल्लंघन कर विजयार्ध पर्वतके तटकी वेदी पर जा पहुंचा ॥ १२० ।। प्रथम ही वह सेनापति सीढियोंके द्वारा विजयार्ध पर्वतकी वेदिकापर चढ़ा और फिर पश्चिम की ओर मुंहकर गुफाके आगे जा पहुंचा ।। १२१ ।। अश्वरत्न पर बैठे हुए सेनापतिने चक्रवर्तीकी जय हो इस प्रकार कहकर दण्डरत्नसे गुफा द्वारका ताड़न किया जिससे बड़ा भारी शब्द हुआ ।। १२२॥ दण्डरत्नकी चोटसे गुफाका द्वार खुल जानेपर उसके भीतरसे बड़ी भारी गर्मी निकलने लगी || १२३ ॥ दण्डरत्नके प्रहारसे उत्पन्न हुए क्रेङकार शब्दको धारण करते हुए दोनों किवाड़ ऐसे जान पड़ते थे मानो वेदनासे सहित होनेके
और कुछ
१ न्यग्रोधस्थान् । २ पातालस्थान् । 'गर्तावटौ भुवि श्वभ्रे' इत्यभिधानात् । 'श्वभूगतविटागादा भुवो विवरवाचका:' इति कात्येनोक्तम् । ३ वृक्षविवरपर्णशालासु जातान् 'पर्णशालोटजोऽस्त्रियाम्' इत्यभिधानात् । ४ राक्षसेभ्योऽन्यान् । ५ क्षपा रात्रिः तस्यामटन्तीति क्षपाटाः तान् राक्षसानित्यर्थः । 'पलंकषो रात्रिनटो रात्र्यटो जललोहितः' इत्यभिधानात् । ६ सहितान् । ७ तेजोऽन्वितम् । ८ ददौ । ६ तिलकादिचतुर्दशाभरणानि । १० चक्रिकृत । ११ उपशान्तिमेति । १२ पश्चिमखण्डस्य । १३ आज्ञाम् । १४ पश्चिमाभिमुखः । १५ समीपम् । १६ आरूढः । १७ दण्डरत्नेन । १८ अर्गलरहिते सति । १६ विस्तृतः । २० ध्वनिविशेषः । २१ कवाटयुगलम् 'कवाटमररं तुल्ये' इत्यभिधानात् । २२ स्विद्यति स्म स्वेदितमित्यर्थः ।
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