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महापुराणम्
'राजोक्तिस्त्वयि राजेन्द्र राजतेऽनन्यगामिनी । अखण्डमण्डलां कृत्स्नां षट्षण्डां गां नियच्छति ॥ १०३ ॥ चक्रात्मना ज्वलत्येष प्रतापस्तव दुःसहः । प्रथते दण्डनीतिश्च दण्डरत्नछलाद् विभोः ॥ १०४ ॥ ईशितव्या मही कृत्स्ना स्वतन्त्रस्त्वमसीश्वरः । निधिरत्तद्विरेश्वयं कः परस्त्वादृशः प्रभुः ॥ १०५॥ भूमत्येकाकिनी लोकं शश्वत्कीतिरनर्गला । सरस्वती च वाचाला कथं ते ते' प्रिये प्रभोः ॥ १०६ ॥ इति प्रतीतमाहात्म्यं त्वां सभाजयितु दिवः । त्वद्द्बलध्वानसंक्षोभ साध्वसाद् वयमागताः ॥ १०७॥ कूटस्था वयमस्याद्रेः स्वपदा' दविचालिनः । भूमिमेतावत तावत् त्वया देवावतारिताः ॥ १०८ ॥ विप्रकृष्टान्तरावासवासिनो व्यन्तरा वयम् । संविधेयास्त्वये दानों प्रत्यासन्नाः पदातयः ॥ १०६ ॥ विद्धि मां विजयार्द्धस्य मर्मज्ञममृताशनम् । कृतमालं गिरेरस्य कूटेऽमुष्मिन् कृतालयम् ॥ ११०॥ मयि स्वसात्कृते" देव स्वीकृतोऽयं महाचलः । सगुहाकाननस्यास्य गिरेर्गर्भविदस्म्यहम् ॥ १११ ॥ गर्भज्ञोsहं गिरेरस्मीत्यत्यल्पमिदमुच्यते । द्वीपान्धिवलये कृत्स्ने नास्माकं कोऽप्यगोचरः ॥ ११२ ॥
कार्य करना चाहिये कि हे प्रिय, समस्त जगत्को जीतनेसे आप देवोंके भी देव हैं ॥ १०१ ॥ हम गीर्वाण हैं और आपके अतिरिक्त विजयकी इच्छा करनेवाले किसी दूसरे पुरुपके विषय में यद्यपि हम वचनरूपी तीक्ष्ण वाणोंको धारण करते हैं तथापि आपके विषय में हम लोग कुण्ठितवचन हो रहे हैं, हमारा अहंकार जाता रहा है और हमारे वचन गद्गद् स्वरसे निकल रहे हैं ॥ १०२ ॥ हे राजेन्द्र, आप छह खण्डों में बँटी हुई समस्त प्रदेश सहित इस संपूर्ण पृथिवी का शासन करते हैं इसलिये दूसरी जगह नहीं रहनेवाली राजोक्ति आपमें ही सुशोभित हो रही है - आप ही वास्तवमें राजा है ॥१०३॥ हे विभो, चत्ररत्नके बहानेसे यह आपका दुःसह प्रताप देदीप्यमान हो रहा है और दण्डरत्नके छलसे आपकी दंड नीति प्रसिद्ध हो रही है ।। १०४ ॥ | यह समस्त पृथिवी आपके आधीन है - पालन करने योग्य है, आप इसके स्वतन्त्र ईश्वर हैं और निधियाँ तथा रत्न ही आपका ऐश्वर्य है इसलिये आपके समान ऐश्वर्यशाली दूसरा कौन है ? ॥ १०५ ॥ । हे प्रभो, आपकी कीर्ति स्वच्छन्द होकर समस्त लोकमं सदा अकेली फिरा करती है और सरस्वती वाचाल है अर्थात् बहुत बोलनेवाली है फिर भी न जाने ये दोनों ही स्त्रियां आपको प्रिय क्यों ? ॥ १०६ ॥ । इस प्रकार जिनका माहात्म्य प्रसिद्ध है ऐसे आपकी सेवा करनेके लिये हम लोग आपकी सेनाके शब्दके क्षोभसे भयभीत हो आकाश से यहां आये हैं ॥१०७॥ हे देव, हम लोग इस पर्वतकी शिखरपर रहते हैं और अपने स्थानसे कभी भी विचलित नहीं होते परन्तु इस भूमि पर आपके द्वारा ही अवतारित हुए हें -- उतारे गये हैं ।। १०८ ।। हम लोग दूर दूर तक अनेक स्थानों में रहनेवाले व्यन्तर हैं अब आप हम लोगोंको अपने समीप रहनेवाले सेवक बना लीजिये ।। १०९ ।। आप मुझे इस पर्वत के इस शिखरपर रहनेवाला और विजयार्ध पर्वतका गर्म जाननेवाला कृतमाल नामका देव जानिये ॥११०॥ हे देव, आपने मुझे वश कर लिया है इसलिये इस महापर्वतको अपने आधीन हुआ ही समझिये क्योंकि मैं गुफाओं और वन सहित इस पर्वतका समस्त भीतरी हाल जानता हूँ ।। १११ ।। अथवा में 'इस पर्वतका भीतरी हाल जाननेवाला हूँ यह बहुत ही थोड़ा कहा गया है क्योंकि समस्त द्वीप और समुद्रोंके भीतर ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है जो हम लोगों का जाना
१ राजेति शब्दः । २ शासति । ३ ऐश्वर्यवती भवितुं योग्या । ४ प्रतिबंधरहिता । ५ कीर्तिसरस्वत्यौ । ६ प्रियतमे ( बभूवतुः ) । ७ सेवितुम् । स्वस्थानात् । ६ एतावद्भमिपर्यन्तम् । 'यावत्तावच्च साकल्येऽवधी मानेऽवधारणे । १० संविधापयितुं योग्याः । १९ त्वदधीने कृते ।
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