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महापुराणम् प्रचेलुः सर्वसामग्रया नपाः सम्भतकोष्ठिकाः । प्रभोश्चिरं जयोद्योगम् प्राकलय्याहिमाचलम् ॥८२॥ भटाकुटिकः केचिद्धता लालाटिकः' पर। नृपाः पश्चात्कृतानीका विभोनिकटमाययुः ॥८३॥ समन्तादिति सामन्तरापतभिः ससाधनैः । समिद्धशासनश्चक्री समेत्य जयकारितः ॥४॥ सामवायिक सामन्तसमाजैरिति सर्वतः । सरिदोघेरिवाम्भोधिः प्रापूर्यत विभोर्बलम् ॥८॥ सवनः सावनिः सोऽद्रिः परितो रुरुधे बलैः । जिनजन्मोत्सवे मेरुः अनीकैरिव नाकिनाम् ॥८६॥ विजया चलप्रस्था० विभोरध्यासिता बलैः । स्वर्गावासश्रियं तेनुः विभक्तपमन्दिरैः ॥८७॥ प्रक्ष्वेलित रथं विष्वक् प्रहेषिततुरङ्गमम् । प्रबृहितगजं सैन्यं ध्वनिसादकरोद् गिरिम् ॥८॥ बलध्वानं गुहारन्छः प्रतिभृद्भुत मुद्वहन् । सोऽद्रिरुद्रिक्ततद्रोधो५ धवं फूत्कारमातनोत् ॥८६॥' अत्रान्तरे ज्वलन्मौलिप्रभापिञ्जरिताम्बरः। ददृशे प्रभुणा व्योम्नि गिरेरवतरत् सुरः ॥१०॥ स ततोऽवतरन्नद्रेः बभौ सानुचरोऽमरः । सवनः कल्पशाखीव लसदाभरणांशुकः ॥१॥
. भरतेश्वरका हिमवान् पर्वत तक विजय प्राप्त करनेका उद्योग बहुत समयमें पूर्ण होगा ऐसा समझकर राजा लोग सब प्रकारकी सामग्रीसे कोठे भर भरकर निकले ॥८२॥ कितने ही राजा लाठी धारण करनेवाले योद्धाओंके साथ, और कितने ही ललाटकी ओर देखनेवाले उत्तम सेवकोंके साथ, अपनी सेना पीछे छोड़कर भरतके निकट आये ।।८३।। इस प्रकार अपनी अपनी सेना सहित चारों ओरसे आते हुए अनेक सामन्तोंने एक जगह इकट्ट हो कर, जिनकी आज्ञा सब जगह देदीप्यमान है ऐसे चक्रवर्तीका जयजयकार किया ॥८४॥ जिस प्रकार नदियोंके समहसे समुद्र भर जाता है उसी प्रकार सहायता देनेवाले सामन्तोंके सम्हसे भरतकी सेना सभी ओरसे भर गई थी ।।८५।। जिस प्रकार भगवान्के जन्म-कल्याणके समय बन और भूमि सहित सुमेरु पर्वत देवोंको सेनाओंसे भर जाता है उसी प्रकार वह विजयार्ध पर्वत भी वन और भमि सहित चारों ओरसे सेनाओंसे भर गया था ॥८६॥ भरतकी सेनाओंसे अधिष्ठित हुए विजयार्ध पर्वतके शिखर अलग अलग तने हुए राजमण्डपोंसे स्वर्गकी शोभा धारण कर रहे थे ॥८७। जिसमें चारों ओरसे रथ चल रहे हैं, घोडे हिनहिना रहे हैं, और हाथी गरज रहे हैं ऐसी उस सेनाने उस विजयार्ध पर्वतको एक शब्दोंके ही आधीन कर दिया था अर्थात् शब्दमय बना दिया था ॥८८॥ गफाओंके छिद्रोंसे जिसकी प्रतिध्वनि निकल रही है ऐसे सेना के शब्दोंको धारण करता हुआ वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो सेनासे घिर जानेके कारण फू फू शब्द ही कर रहा हो अर्थात् रो ही रहा हो ॥८९॥
इसी बीचमें भरतने, देदीप्यमान मुकुटकी कान्तिसे जिसने आकाशको भी पीला कर दिया है और जो पर्वतपरसे नीचे उतर रहा है ऐसा एक देव आकाशमें देखा ॥९०॥ जिसके आभूषण तथा वस्त्र देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसा वह देव अपने सेवकों सहित उस पर्वतसे उतरता हुआ ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो जिसके आभूषण और वस्त्र देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसा वनसहित
१ भूपाः ल० । २ तण्डुलादिभारवाहकबलीबर्दाः । ३ लकुटम् आयुधं येषां तैः। ४ प्रभोर्भावशिभिः 'लालाटिकः प्रभोर्भावदर्शी कार्यक्षमश्च यः' इत्यभिधानात् । ५ जयकारं नीतः संजातजयकारो वा जय जयति स्तुत इति यावत् । ६ मिलित । ७ वनसहितः । ८ अवनिसहितः । ६ सैन्यः । १० सानवः । ११ मण्डलैः ल०। १२ सिंहनादित 'क्ष्वेडा तु सिंहनादः स्यात्' इत्यभिधानात् । १३ शब्दमयमकरोत् । १४ प्रतिध्वनितम् 'सती प्रतिश्रुतप्रतिध्वाने' इत्यभिधानात् । १५ उत्कटसेनानिरोधः । १६ अनचरैः सहितः । १७ वनेन सहितः ।
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