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एकत्रिंशत्तमं पर्व
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हस्तिनां पदरक्षायं सुभटा योजिता नृपं । राजन्यैः सह युध्वानः कृताश्चाभिनिषादिनः ॥ ७४ ॥ प्रवीरा राजपुध्वानः क्लृप्ताः पत्तिषु नायकाः । श्रश्वीये' च ससन्नाहा: ' सोत्तरङगा स्तुरङगिणः ॥७५॥ प्राचरय्य बलान्येके स्वानीक्षांचक्रिरे नृपाः । दण्डमण्डलभोगासंहृतव्यूहः * सुयोजितैः ॥७६॥ चक्रिणोऽवसरः कोऽस्य योऽस्माभिः साध्यतेऽल्पकैः । भक्तिरेषा तु नः काले प्रभोर्यदनुसर्पणम् ॥७७॥ प्रभोरवसरः सार्य:' प्रसार्य तो यशोधनम् । विरोधिबलमुत्सायं सन्धायं पुरुषव्रतम् ॥७८॥ द्रष्टव्या विविधा देशा लब्धव्याश्च जयाशिषः । इत्युदाचक्रिरे ऽन्योन्यं भटाः श्लाघ्यैरुदाहृतः ॥७६॥ गिरिदुर्गोऽयमुल्लङ्घयो महत्यः सरितोऽन्तरा" । इत्यपायेक्षिणः केचिद् श्रयानं बहु मेनिरे ॥८०॥ इति नानाविधर्भावः संजल्पश्च लघूत्थिताः । प्रस्थिताः सैनिकाः प्रापन् सेश्वराः शिबिरं प्रभोः ॥८१॥
वे पैदल चलनेवाले सैनिकों की अपेक्षा अधिक गौरव अर्थात् भारीपन ( पक्षमें श्रेष्ठता ) को प्राप्त हो रहे थे । भावार्थ- पैदल चलनेवाले सैनिक अपने शस्त्र कन्धेपर रखकर जा रहे थे और रथोंपर सवार होनेवाले सैनिक अपने सब शस्त्र रथोंपर रखकर जा रहे थे तो भी वे पैदल चलनेवालों की अपेक्षा अधिक भारी हो रहे थे यह बड़े आश्चर्यकी बात है परन्तु अति गौरव शब्दका अर्थ अतिशय श्रेष्ठता लेनेपर वह आश्चर्य दूर हो जाता है । पैदल सैनिकों की अपेक्षा रथपर सवार होनेवाले सैनिक श्रेष्ठ होते ही हैं ॥७३॥ राजाओंने हाथियोंके पैरोंकी रक्षा करनेके लिये जिन शूरवीर योद्धाओंको नियुक्त किया था वे अनेक राजाओं के साथ युद्ध करते थे और उन हाथियोंके चारों ओर विद्यमान रहते थे अथवा समय पर महावत भी बनाये जाते थे ||७४ || जो राजाओं के साथ भी युद्ध करनेवाले थे ऐसे श्रेष्ठ शूर वीर पैदल सेनाके सेनापति बनाये गये थे और जो घुड़सवार कवच पहिने हुए तथा लहराते हुए नदी के प्रवाहके समान थे उन्हें घुड़सवार सेनाका सेनापति बनाया था ॥ ७५ ॥ कितने ही राजा लोग अच्छी तरह रचे हुए दण्डव्यूह, ( दण्डके आकार सेनाको सीधी रेखामें खड़ा रखना) मण्डल व्यूह, ( मण्डलके आकार गोल चक्कर लगाकर खड़ा रखना ), भोगव्यूह ( अर्धगोलाकार खड़ा करना) और असंहृत व्यूह, ( फैलाकर खड़ा करना) से अपनी सेनाकी रचना कर उसे देख रहे थे ॥ ७६ ॥ इस चक्रवर्तीका ऐसा कौन-सा कार्य है जिसका हम तुच्छ लोग स्मरण भी कर सकते हों अर्थात् कार्यका सिद्ध करना तो दूर रहा उसका स्मरण भी नहीं कर सकते, फिर भी हम लोग जो स्वामी के पीछे पीछे चल रहे हैं सो यह हम लोगोंकी इस समयपर होने वाली भक्ति ही है । हम लोगोंको स्वामीका कार्य सिद्ध करना चाहिये, अपना यशरूपी धन फैलाना चाहिये, शत्रुओंकी सेना दूर हटानी चाहिये, पुरुषार्थ धारण करना चाहिये, अनेक देश देखने चाहिये और विजयके अनेक आशीर्वाद प्राप्त करने चाहिये, इस प्रकार प्रशंसनीय उदाहरणों के द्वारा योद्धा लोग परस्परमें बातचीत कर रहे थे ।। ७७-७९ ।। यह दुर्गम पर्वत उल्लंघन करना है और बीचमें बड़ी-बड़ी नदियाँ पार करनी हैं इस प्रकार अनेक विघ्न-बाधाओं का विचार करते हुए कितने ही लोग आगे नहीं जाना ही अच्छा समझते थे ||८०|| इस प्रकार अनेक प्रकारके भावों और परस्परकी बातचीतके साथ जल्दी उठकर जिन्होंने प्रस्थान किया है ऐसे सैनिक लोग अपने अपने स्वामियों सहित चक्रवर्ती के शिविरमें जा पहुंचे ॥८१॥
१ अश्वसमूहे । २ सकवचाः । ३ ऊर्मिसमानाः । ४ दण्डादीनि चत्वारि व्यूहभेदनामानि । अत्राभिधानम् तिर्यग्वृत्तिस्तु दण्डः स्याद् भोगोऽन्यावृत्तिरेव च । मण्डलं सर्वतो वृत्तिः प्रागवृत्तिरसंहृतः' । ५ समयः । ६ स्मर्यते द०, ल० अ०, प०, ह०, स० । ७ अनुवर्तनम् । ८ प्रापणीयः । ६ ऊचिरे । १० मध्ये मध्ये । ११ वानरहितत्वम् अथवा अगमनम् । १२
निजस्वामिसहिताः ।
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