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महापुराणम् पाहताः केचिदाजग्मुः प्रभुणा मण्डलाधिपाः । अनाहताश्च संभेजः विभुं चारुभटा: परे ॥६५॥ विदेशः किल यातव्यो जेतव्या म्लेच्छभूमिपाः । इति संचिन्त्य सामन्तःप्रायः सज्ज धनबलम् ॥६६॥ धन्विनः शरनाराचसंभूतेषुधिबन्धनैः । न्यवेदयन्निवात्मान् ऋणदासमधोशिनाम् ॥६७॥ धनुर्धरा धन: सज्ज्यम् प्रास्फाल्य चकृषः परे। चिकीर्षव इवारीणां जीवाकर्ष सहुडकृताः ॥६॥ करवालान् करे कृत्वा तुलयन्ति स्म केचन । स्वामिसत्कारभारेण नूनं तान् प्रमिमित्सवः ॥६६॥ १°संमिता भृशं रेजुः भटाः प्रोल्लासितासयः । निर्मोकरिव विश्लिष्टः ललज्जिह्वामहाहयः ॥७०॥ साटोपं स्फुटिताः केचिद् वल्गन्ति स्माभितो भटाः । अस्युद्यताः पुरोऽरातीन् पश्यन्त इव सम्मुखम् १"अस्त्रय॑स्त्रैश्च शस्त्रैश्च शिरस्त्रैः२° सतन्त्रकैः । वधुर्जयनशालानां लीलां रथ्याः सुसम्भूताः।७२। रथिनो रथकटयासु" गुर्वीरायुधसंपदः । समारोप्यापि पत्तिभ्यो भेजुरेवातिगौरवम् ॥७३॥
तथा और भी अनेक राजा लोग अपनी समस्त सेना और सवारियां लेकर उसी समय आ पहुंचे ॥६४॥ कितने ही मण्डलेश्वर राजा भरतके बुलाये हुए आये थे और कितने ही उत्तम उत्तम योद्धा बिना बुलाये ही उनके समीप आ उपस्थित हुए थे ॥६५॥ अब विदेशमें जाना है और म्लेच्छ राजाओंको जीतना है यही विचार कर सामन्तोंने प्रायः धनष-बाणको धारण करने वाली सेना तैयार की थी ॥६६॥ धनुष धारण करनेवाले योद्धा छोटे-बड़े बाणोंसे भरे हुए तरकसोंके बाँधनेसे ऐसे जान पड़ते थे मानो वे अपने स्वामियोंसे यही कह रहे हों कि हम लोग आपके ऋणके दास हैं अर्थात् आज तक आप लोगोंने जो हमारा भरणपोषण किया है उसके बदले हम लोग आपकी सेवा करनेके लिये तत्पर है ॥६७॥ हुंकार शब्द करते हुए कितने ही धनुषधारी लोग अपने डोरी सहित धनुषको आस्फालन कर खींच रहे थे और उससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो शत्रुओंके जीवोंको ही खींचना चाहते हों ॥६८॥ कितने ही योद्धा लोग हाथमें तलवार लेकर उसे तोल रहे थे मानो स्वामीसे प्राप्त हुए सत्कारके भारके साथ उसका प्रमाण ही करना चाहते हों ॥६९।। जो कवच धारण किये हुए हैं और जिनकी तलवारें चमक रही हैं ऐसे कितने ही योद्धा इतने अच्छे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनकी काँचली कुछ ढीली हो गई है और जीभ बार-बार बाहर लपक रही है ऐसे बड़े बड़े सर्प ही हों ॥७०॥ कितने ही योद्धा अभिमानसहित हाथ में तलवार उठाये और गर्जना करते हुए चारों ओर इस प्रकार घूम रहे थे मानो शत्रुओंको अपने सामने ही देख रहे हों ॥७१॥ आग्नेय बाण आदि अस्त्र, महास्तम्भ आदि व्यस्त्र, तलवार धनुष आदि शस्त्र, शिरकी रक्षा करनेवाले लोहके टोप और कवच आदिसे भरे हुए रथोंके सम्ह ठीक आयुधशालाओंकी शोभा धारण कर रहे थे ।।७२।। रथोंमें सवार होनेवाले योद्धा यद्यपि भारी भारी शस्त्रोंको रथोंपर रखकर जा रहे थे तथापि
१ वीरभटाः । 'शूरवीरश्च विक्रान्तो भरश्चारभटो मतः' इति हलायुधः। २ नानादेशः । ३ भूभुजः म०, द०, अ०, प०, स०, ल०, इ० । ४ सन्नद्धीकृतम् । ५ ज्यासहितम्। ६ आताड्य, टणत्कारं कृत्वा । स्फाल्या कृष : ब०, ८०, अ०, म०, प०, स०, ल०, इ०। ७ आकर्षयन्ति स्म । ८ भारेण सह । ६ प्रमातुमिच्छवः । १० धृतकवचाः । ११ प्रकर्षेणोल्लासितखड्गाः । १२ शिथिलैः । १३ चलत् । १४ आस्फालिते भुजाः। १५ खड्गे उद्युक्ताः। १६ शत्रून् प्रत्यक्षमालोकयन्निव । १७ दिव्यायुधः । १८ गरलगुडाद्यायुधैः । १६ सामान्यायुधैः । २० शीर्षकः । २१ शस्त्रशालानाम्। २२ वीथ्याः । २३ रथिकाः । २४ रथसमूहेषु । २५ अतिश्लाघनम् । अति भारयुक्तमिति ध्वनिः, अत्यर्थ वेगं गता इत्यर्थः ।
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