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महापुराणम् अथ सम्मुखमागत्य 'सानीकैन पसत्तमैः । प्रत्यगृहचत सेनानीः सजयानकनिस्वनम् ॥१४॥ विभक्ततोरणामुच्चः प्रचलत्केतुमालिकाम् । महावीथीमतिक्रम्य प्राविक्षत् स नृपालयम् ॥१४६॥ तुरङगमवरादुरात् कृतावतरणः कृती। प्रभोपासनस्थस्य प्रापदास्थानमण्डपम् ॥१५०॥ दूरानतचलन्मौलिसंवष्टकरकुटमलः । प्रणनाम प्रभु सभ्यः वीक्ष्यमाणः सविस्मितः ॥१५१॥ मुखरैर्जयकारेण म्लेच्छराजैः ससाध्वसम् । प्रणेमे प्रभुरभ्येत्य ललाटस्पृष्टभूतलैः ॥१५२॥ तदुपाहत रत्नाद्यः अर्घ्ययनुपढौकितैः । नामादेशं च 'तानस्मै प्रभवेऽसौ न्यवेदयत् ॥१५३॥ सप्रसावं च सम्मान्य सत्कृतास्ते महीभुजः। प्रभोरनुमताद् भूयः स्वमोकः प्रत्ययासिषुः ॥१५४॥ इत्थं पुण्योदयाच्चक्री बलात् प्रत्यन्तपालकान् । विजिग्ये दण्डमात्रेण जयः पुण्यादृते कुतः ॥१५॥
मालिनी अथ न पतिसमाजेनाचितः सानुरागं विजितसकलदुर्गः प्रहयन म्लेच्छनाथान् । पुनरपि विजयायायोजि सोऽग्रेसरत्वे जय इव जयचिह्नर्मानितो रत्नभा१५६।। जयति जिनवराणां शासनं यत्प्रसादात् पदमिदमधिराज्ञां प्राप्यते हेलयैव । समुचितनिधिरत्नप्राज्यभोगोपभोगप्रकटितसुखसारं भूरि संपत्प्रसारम् ॥१५७॥
का उपाय कर वह चक्रवर्ती की छावनीमें वापिस लौट अया ॥१४७॥ सेनापतिक वहां पहुंचने पर अनेक उत्तम उत्तम राजाओने अपनी सेनाओंके साथ सामने जाकर विजयसुचक नगाड़ोंके शब्दोंके साथ साथ उसका स्वागत-सत्कार किया ॥१४८॥ जिसमें अनेक तोरण लगे हुए हैं और जिसम बहुत ऊंची अनेक पताकाओक समूह फहरा रहे हैं एस राजमार्गको उल्लंघन कर वह सेनापति महाराज भरतके डेरेमें प्रविष्ट हआ।।१४९।। वह व्यवहारकुशल सेनापति दरसे ही उत्तम घोड़ेपरसे उतर पड़ा और जहाँ महाराज भरत राजसिंहासनपर बैठे हुए थे उस सभामण्डपमें जा पहुँचा ॥१५०॥ दूरसे ही झुके हुए चंचल मुकुटपर जिसने अपने दोनों हाथ जोड़कर रखे हैं और सभासद् लोग जिसे आश्चर्य के साथ देख रहे हैं ऐसा सेनापतिने महाराज भरतको नमस्कार किया ।।१५१।। जिन्होंने अपने ललाटसे पृथिवीतलका स्पर्श किया है और जो जयजय शब्द करनेसे वाचालित हो रहे हैं ऐसे म्लेच्छ राजाओंने भगसहित सामने आकर भरत को नमस्कार किया ॥१५२।। उन म्लेच्छ राजाओंके द्वारा उपहारमें लाये हए रत्न आदिको सामने रखकर सेनापतिने महाराज भरतसे नाम ले लेकर सबका परिचय कराया ।।१५३।। महाराजने प्रसन्नताके साथ सन्मान करके उन सब राजाओंका सत्कार किया, तदनन्तर वे राजा महाराजकी अनुमतिसे अपने अपने स्थान पर वापिस चले गये ।।१५४॥ इस प्रकार चक्रवर्ती ने पूण्य कर्मके उदयसे केवल दण्डरत्नके द्वारा ही विजयाध पर्वतके समीपवर्ती राजाओंको जबर्दस्ती जीत लिया था सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यके बिना विजय कहांसे हो सकती है ? ।१५५।
अथानन्तर-अनेक राजाओंके समूहने प्रेमपूर्वक जिसका सत्कार किया है, जिसने सब किले जीत लिये हैं, जिसने म्लेच्छ राजाओंको नमीभत किया है. जो साक्षात विजयके समान सुशोभित हो रहा है और विजयके चिह्नोंसे जिसका सन्मान किया गया है ऐसे उस सेनापति को रत्नोंके स्वामी भरत महाराजने विजय प्राप्त करनेके लिये फिर भी प्रधान सेनापतिके पदपर नियुक्त किया ।।१५६॥ योग्य निधियाँ, रत्न तथा उत्कृष्ट भोग-उपभोगकी वस्तुओं
१ ससैन्यैः । २ तन्म्लेच्छराजेभ्य आहृत । ३ पूजयन् । ४ प्रभोः समीपं नीतः। ५ नामोद्देशम् । ६ म्लेच्छराजान् । ७ निजावासं सम्प्रतिजग्मुः। ८ म्लेच्छराजान् 'प्रत्यन्तो म्लेच्छदेश: स्यादित्यभिधानात् ।
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