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महापुराणम् उद्घाटितकवाटेन द्वारेणोष्माणमुद्वमन् । रराज राजतः शैलो लब्धोच्छवासश्चिरादिव ॥१२५॥ कवाटपुटविश्लेषाद् उच्चचार महान् ध्वनिः । दण्डेनाभिहतस्याद्रेः प्राक्रोश इव विस्फुरन् ॥१२६॥ गुहोष्मणा स नाश्लेषि' विदूरमपवाहितः । तरश्विनाऽश्वरत्नेन देवताभिश्च रक्षितः ॥१२७॥ निपेतुरमरस्त्रीणां दृक्क्षेपैः सममम्बरात् । सुमनःप्रकरास्तस्मिन् हासा इव जयश्रियः ॥१२८॥ तवेदी ससोपाना रूप्याद्रेः समतीयिवान् । सोऽभ्यत् सतोरणां सिन्धोः पश्चिमां वनवेदिकाम् ॥१२६॥ वेदिकां तामतिक्रम्य संजगाहे' परां भुवम् । नानाकरपुरग्रामसीमारामरलडकृताम् ॥१३०॥ प्रविष्टमात्र एवास्मिन् प्रजास्त्रासमुपाययुः । समं 'दारगवरन्या घटन्ते स्म पलायितुम् ॥१३॥ केचित् कृतधियो धीराः सार्धाः पुण्याक्षतादिभिः। प्रत्यग्रहीपुरभ्येत्य सबलं बलनायकम् ॥१३२॥ न भेतव्यं न भेतव्यम् आध्वमाध्वं यथासुखम् । इत्यस्याज्ञाकरा विष्वक् भे मुराश्वासितप्रजाः ॥१३३॥ म्लेच्छखण्डमखण्डाज्ञः परिक्रामन् प्रदक्षिणम् । तत्र तत्र विभो राज्ञां म्लेच्छराजैरजिग्रहत् ॥१३४॥ इदं चक्रधरक्षेत्र स चैष निकट प्रभुः । तमाराधयितुं यूयं त्वरध्वं सह साधनैः ॥१३॥
भरतस्यादिराजस्य चक्रिणोऽप्रतिशासनम् । शासनं शिरसा दध्वं यूयमित्यन्वशाच्च" तान् ॥१३६ कारण चिल्ला ही रहे हों, उन्हें दुःखसे पसीना ही आ गया हो और गुफाके भीतरकी गरमी से उनके प्राण ही निकले जा रहे हों ॥१२४॥ जिसके किवाड़ खुल गये हैं ऐसे द्वारसे गरमी को निकालता हुआ वह विजयार्ध पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो बहुत दिन बाद उसने उच्छ्वास ही लिया हो ।१२५।। दोनों किवाड़ोंके खुलनेसे एक बड़ा भारी शब्द हुआ था और वह ऐसा जान पड़ता था मानो दण्डरत्नके द्वारा ताड़ित हुए पर्वतके रोनेका शब्द ही हो ॥१२६।। देगशालो अश्वरत्न जिसे बहुत दूर तक भगा ले गया है और देवताओंने जिसकी रक्षा की है ऐसे उस सेनापतिको गुफाकी गरमी छू भी नहीं सकी थी ।।१२७॥ उस समय उस सेनापतिपर देवांगनाओंके कटाक्षोंके साथ साथ आकाशसे फूलोंके समूह पड़ रहे थे और वे जयलक्ष्मी के हासके समान जान पड़ते थे ।। १२८।। सेनापति सीढ़ियों सहित विजयाई पर्वतके किनारे की वेदीको उल्लंघन करता हुआ तोरण सहित सिन्धु नदीके पश्चिम ओर वाली वनकी वेदिवा के सन्मुख पहुंचा ॥१२९।। उसने उस वेदिकाको भी उल्लंघन कर अनेक खानि, पुर, ग्राम, सीमा और बाग बगीचोंसे सुन्दर म्लेच्छखण्डको उत्तम भूमिमें प्रवेश किया ।।१३०॥ उस भूमिमें सेनापतिके प्रवेश करते ही वहाँकी समस्त प्रजा घबड़ा गई, उसमेंसे कितने ही लोग स्त्रियों तथा गाय भैंस आदिके साथ भागनेके लिये तैयार हो गये ॥१३१॥ कितने ही बुद्धिमान् तथा धीर वीर पुरुष पवित्र अक्षत आदिका बना हुआ अर्घ लेकर सेनासहित सेनापतिके सन्मुख गये और उसका सत्कार किया ॥१३२।। अरे डरो मत, डरो मत, जिसको जिस प्रकार सुख हो उसी प्रकार रहो इस प्रकार प्रजाको आश्वासन देते हुए चक्रवर्तीके सेवक चारों ओर घूमे थे ॥१३३॥ अखण्ड आज्ञाको धारण करनेवाला वह सेनापति प्रदक्षिणा रूपसे म्लेच्छखण्ड में घूमता हुआ जगह जगह म्लेच्छ राजाओंसे चक्रवर्तीकी आज्ञा स्वीकृत करवाता जाता था ॥१३४॥ सेनापतिने म्लेच्छ राजाओंको यह भी सिखलाया कि यह चक्रवर्तीका क्षेत्र है और वह प्रसिद्ध चक्रवर्ती समीप ही है इसलिये तुम सब अपने अपने सेनाओंके साथ उनकी सेवा करनेके लिये शीघ्रता करो। चक्रवर्ती भरत इस युगके प्रथम अथवा सबसे मुख्य राजा है इसलिये कभी भंग नहीं होनेवाली उनकी आज्ञाको तुम सब अपने मस्तकपर धारण करो ॥१३५-१३६॥
१ न आलिंगितः । २ अपनीतः । ३ अभ्यगच्छत् । ४ प्रविशति स्म । सञ्जगाहे ल० । ५ पश्चिमाम् । ६ (द्वन्द्वसमासः)कललधेनुभिः । ७ चेष्टन्ते स्म। ८ यथासुखं तिष्ठत । ६ सेनान्यः । १० भृत्याः । ११ अग्राहयत् । १२ समीपे आस्ते । १३ न विद्यते प्रतिशासनं यस्य । १४ धारयत । १५ शारित स्म ।
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