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महापुराणम्
अभूतपूर्वमुद्भूतप्रतिध्वानं बलध्वनिम् । श्रुत्वा 'बलवदुत्त्रेसुः तिर्यञ्चो वनगोचराः ॥२२॥ बलक्षोभादिभो' निर्यन् वलक्षोऽभाद्" बनान्तरात् । सुरेभः सुविभक्ताङ्गः सुरेभ' इब वर्ष्मणा ॥ २३॥ प्रबोधजुम्भणादास्यं व्याददौ किल केसरी । न मेऽस्त्यंतर्भयं किञ्चित् पश्यतेऽतीव दर्शयन् ॥ २४ ॥ शरभो रभसादूर्ध्वम् उत्पत्योत्तानितः पतन् । सुस्थ एव पदैः पृष्ठचैः श्रभूनिर्मातृकौशलात् ॥२५॥ १२ विषाणोल्लिखित स्कन्धो रुषिताऽऽताप्रितेक्षणः १२ । खुरोत्खातावनिः सैन्यैः ददृशे महिषो विभीः ॥ २६ ॥ चमूरवश्रवोद्भूत" साध्वसाः क्षुद्रका मृगाः । विजयार्द्धगुहोत्सङ्गान् युगक्षय इवाश्रयन् ॥२७॥ अनुदुता" मृगाः शावंः पलायाञ्चक्रिरेऽभितः । वित्रस्ता वेपमानाङ्गाः " सिक्ताभयरसैरिव ॥ २८ ॥ चराहारति" मुक्त्वा वराहा मुक्तपल्वलाः । विनेषु विस्फुटद्यथाः ? चमूक्षोभादितोऽमुतः ॥२६॥ वरणावरणास्तस्थुः करिणोऽन्ये भयद्रुताः । हरिणा हरिणा रातिगुहान्तानधिशिश्यिरे ॥३०॥
की समस्त भूमियाँ भर गई थीं, उनके पक्षीरूपी प्राण उड़ गये थे और उस समय वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो श्वासोच्छ्वाससे रहित ही हो गई हों । अर्थात् सेनाओं के बोझसे दबकर मानो मर ही गई हों ||२१|| जो पहले कभी सुनने में नहीं आया था और जिसकी प्रतिध्वनि उठ रही थी ऐसा सेनाका कलकल शब्द सुनकर वनमें रहनेवाले पशु बहुत ही भयभीत और दुःखी हो गये थे ||२२|| जो अपने शरीरकी अपेक्षा ऐरावत हाथी के समान था, जिसके समस्त अंगोपाङ्गों का विभाग ठीक ठीक हुआ था, और जो मधुर गर्जना कर रहा था ऐसा कोई सफेद रंगका हाथी सेनाके क्षोभसे वनके भीतरसे निकलता हुआ बहुत ही अच्छा सुशोभित हो रहा था ।। २३॥ मेरे मनमें कुछ भी भय नहीं है जिसकी इच्छा हो सो देख ले इस प्रकार दिखलाता हुआ ही मानो कोई सिंह जागकर जमुहाई लेता हुआ मुँह खोल रहा था || २४|| अष्टापद बड़े वेग से ऊपरकी ओर उछलकर ऊपरकी ओर मुँह करके नीचे पड़ गया था परन्तु बनानेवाले ( नामकर्म ) की चतुराईसे पीठपरके पैरोंसे ठीक ठीक आ खड़ा हुआ था--उसे कोई चोट नहीं आई थी ||२५|| जो पत्थर से अपने कन्धे घिस रहा है, जिसके नेत्र क्रोधित होनेसे कुछ कुछ लाल हो रहे हैं और जो खुरोंसे पृथिवी खोद रहा है ऐसा एक निर्भय भैंसा सेनाके लोगोंने देखा था ||२६|| सेनाके शब्द सुनने से जिनके भय उत्पन्न हो रहा है ऐसे छोटे छोटे पशु प्रलयकालके समान विजयार्ध पर्वतकी गुफाओं के मध्य भागका आश्रय ले रहे थे । भावार्थ - जिस प्रकार प्रलयकालके समय जीव विजयार्धकी गुफाओं में जा छिपते हैं उसी प्रकार उस समय भी अनेक जीव सेनाके शब्दों से डरकर विजयार्धकी गुफाओं में जा छिपे थे ||२७|| जिनके पीछे पीछे बच्चे दौड़ रहे हैं और जिनका शरीर कँप रहा है ऐसे डरे हुए हरिण चारों ओर भाग रहे थे तथा वे उस समय ऐसे मालूम होते थे मानों भयरूपी रससे सींचे हो गये हों ||२८|| सेनाके क्षोभसे जिन्होंने जलसे भरे हुए छोटे छोटे तालाब ( तलैया) छोड़ दिये हैं और जिनके झुण्ड विखर गये हैं ऐसे सूअर अपने उत्तम आहार में प्रेम छोड़कर इधर उधर घुस रहे थे ।। २९ ।। कितने ही अन्य हाथी भय से भागकर वृक्षोंसे ढकी हुई जगह में छिपकर जा खड़े हुए थे और हरिण सिंहों की गुफाओं
१ अधिकम् । २ तत्रसुः । ३ धवलः । ४ रेजे । ५ शोभनध्वनिः । ६ सुव्यक्तावयवः । ७ देवगणः । Ε विवृतमकरोत् । पृष्ठवत्तभिः । १० निर्माणकर्म अथवा विधिः । ११ पाषाणो ल० । १२ रोषेणारुणीकृतः । १३ निर्भीतिः । १४ सेनाध्वन्याकर्णनाज्जात । १५ प्रलयकाले यथा । १६ अनुगताः । १७ कम्पमानशरीराः । १८ उत्कृष्टाहारप्रीतिम् । १६ त्यक्तवेशन्ताः । २० नश्यन्ति स्म । विविशुः ल० । २१ विप्रकीर्णवृन्दाः । २२ वृक्षविशेषाच्छादनाः सन्तः । २३ सिंहः ।
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