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एकत्रिंशत्तम पर्व
कौबेरीमय निर्जेतुम् प्राशामभ्युद्यतो विभुः। प्रतस्थ वाजिभूयिष्ठः साधनैः स्थगयन् दिशः ॥१॥ धौरितर्गत मुत्साहः सत्त्वं शिक्षां च लाघवैः । जाति वपुर्णणस्तज्ज्ञाः तदाश्वानां विजज्ञिरे ॥२॥ धौरितं गतिचातुर्यम् उत्साहस्तु पराक्रमः । शिक्षाविनयसंपत्ती रोमच्छाया वपुर्गुणः ॥३॥ पुरोभागा निवात्येतुं पश्चाद्भागैः कृतोद्यमा प्रययुटुंतमव्वानम् अध्वनीना स्तुरङगमाः ॥४॥ खुरोद्धृतान् महीरेणून् स्वाङगस्पर्शभयादिव । केचिद् व्यती युरध्यध्वं' महाश्वाः कृतयिक्रमाः ॥५॥ छायात्मनः१० सहोत्थान केचित्सोढ मियाक्षमाः। खुरैरघट्टयन वाहाः स तु सौक्षम्यान्नबाधितः ॥६॥ केचिन्नत्तमिवातेनः महीरङगे तुरङगमाः। क्रमैश्चङक्रमणारम्भे'२ कृतमड्डुकवादनः ॥७॥ स्थिरप्रकृतिसत्त्वानाम् अश्वानां चलताऽभवत् । प्रचलत्खुरसंक्षुण्णभुयां गतिषु केवलम् ॥८॥ कोटयोऽष्टादशास्य स्युः वाजिनां वायु रंहसाम् । आजानेयप्रधानानां५ योग्यानां चक्रवर्तिनः ॥६॥ रुद्धरोधोवनाक्षुण्णतटभासयंत्यपः । सिन्धोः१६ प्रतीपता" भेजे प्रयान्ती सा पताकिनी ॥१०॥"
अथानन्तर-उत्तर दिशाको जीतने के लिये उद्यत हुए चक्रवर्ती भरत जिनमें अनेक घोड़े हैं ऐसी सेनाओंसे दिशाओंको व्याप्त करते हुए निकले ।।१।। उस समय घोड़ोंके गुण जानने वाले लोगोंने धौरित नामकी गतिसे उनकी चाल जानी, उत्साहसे उनका वल जाना, स्फतिके साथ हलकी चाल चलनेसे उनकी शिक्षा जानी और शरीरके गुणोंसे उनकी जाति जानी ।।२।। गतिकी चतुराईको धौरित, उत्साहको पराक्रम, विनयको शिक्षा और रोमोंको कान्तिको शरीरका गुण कहते हैं ॥३॥ अच्छी तरह मार्ग तय करनेवाले घोड़े मार्गमें बहुत जल्दी जल्दी जा रहे थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो अपने पीछेके भागोंसे अगले भागोंको उल्लंघन ही करना चाहते हों ॥४॥ अपने खुरोंसे उड़ती हुई पृथिवीकी धूलिका कहीं हमारे ही शरीरके साथ स्पर्श न हो जावे? इस भयसे ही मानों अनेक बड़े बड़े घोड़े अपना पराक्रम प्रकट करते हुए मार्गमें उस धूलिको उल्लंघन कर रहे थे ॥५॥ कितने ही घोड़े अपनी छायाका भी अपने साथ चलना नहों सह सकते थे इसलिये ही मानो वे उसे अपने खरोंसे तोड रहे थे परन्तु सक्ष्म होनेसे उस छायाको कुछ भी बाधा नहीं होती थी ॥६॥ कितने ही घोड़े ऐसे जान पड़ते थे मानों चलनेके प्रारम्भमें बजते हुए नगाड़े आदि बाजोंके साथ साथ अपने पैरोंसे पृथ्वीरूपी रङ्गभूमिपर नृत्य ही कर रहे हों ॥७॥ जिनका स्वभाव और पराक्रम स्थिर है परन्तु जिन्होंने अपने चलते हुए खुरोंसे पृथ्वी खोद डाली है ऐसे घोड़ोंकी चंचलता केवल चलने में ही थी अन्यत्र नहीं थी ॥८॥ जिनका वेग वायुके समान है, जो उत्तम जातिके हैं और जो योग्य हैं ऐसे चक्रवर्तीके घोड़ों की संख्या अठारह करोड़ थी ॥९॥ जिसने किनारे के वन रोक लिये हैं, जिसने किनारेकी पृथिवी
१ धाराभिः । 'आस्कन्दितं धौरितकं रेचितं वल्गितं प्लुतम् । गतयोऽमः पञ्च धाराः ।' पदैरुत्प्लुत्योत्प्लुत्य गमनम् आस्कन्दितम् । कङकशिखिकोड़नकुलगतैः सदृशम् धौरितकम् । मध्यमवेगेन चक्रवद् भमणम् रेचितम् । पद्भिर्वल्गितम् बल्गितम् । मृगसाम्येन लङघनं प्लुतम् । आस्कन्दितादीनि पञ्चपदानि धाराशब्दवाच्यानि । धारेत्यश्वगतिः सा आस्कन्दितादिभेदेन पञ्चविधा भवतीत्यर्थः। २ गमनम् । ३ बुबुधिरे। ४ पूर्वकायान्। ५ अतिगन्तुम् । ६ अपरकायैः। ७ अध्वनि समर्थाः । ८ अतीत्यागच्छन् । ६ मार्ग। १० छायास्वरूपस्य। ११ छायात्मा। १२ शीघगमनारम्भ। १३ वाद्य विशेषः । १४ पवनवेगिनाम् । १५ जात्यश्वमुख्यानाम् । १६ सिन्धनद्याः । १० प्रतिकूलताम् ।
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