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एकत्रिंशत्तम पर्व प्रभोरिवागमात्तुष्टा सिन्धुः सैन्याधिनायकान् । तरङगपवनैर्मन्दम् प्रासिषेवे सुखाहरः ॥११॥ गडगावर्णनयोपेतां फेनार्धा२ सम्मखागताम् । तां पश्यन्नत्तरामाशां जितां मेने निधीश्वरः ॥१२॥ अनुसिन्धुतटं सैन्यैः उदीच्यान् साधयन्नपान् । विजयार्धाचलोपान्तम् पाससाद शनैर्मनुः ॥१३॥ स गिरिमणिनिर्माणनवकूटविशङकट: । ददृशे प्रभुणा दूराद् धृतार्घ इव राजतः ॥१४॥ स शैलः पवनाधूतचलशाखाग्रबाहुभिः । दूरादभ्यागतं जिष्णुम् आजुहावेव पादपः ॥१५॥ सोऽचलः शिखरोपान्तनिपतन्निराम्बभिः। प्रभोरुपागमे पाद्यं “संविधित्सुरिवाचकात्॥१६॥ स नगो नागपुन्नागपूगादिद्र मसङकट: । रम्यस्तटवनोद्देशः आह्वत् प्रभुमिवासितुम् ॥१७॥ रजो वितान यन् पौष्पं पवनैः परितो वनम् । सोऽभ्युत्तिष्ठन्निवास्यासीत् कूजत्कोकिलडिण्डिमः॥१८॥ किमत्र बहुना सोऽद्रिः विभु दिग्विजयोद्यतम् । प्रत्यच्छदिव संप्रीत्या सत्काराङगैरतिस्फुटैः ॥१६॥ पिनद्ध'तोरणामुच्चैरतीत्य बनवेदिकाम् । नियन्त्रितं२ बलाध्यक्षः जगाहेऽन्तर्वणं बलम् ॥२०॥
वनोपान्तभुवः सैन्यः प्रारुद्धा रुद्धदिङमुखैः । उड्डीनविहगप्राणा निरुच्छ्वासास्तदाभवन् ॥२१॥ तोड़ दी है और जो जलको कम करती जाती है ऐसी चलतो हुई वह सेना मानो सिन्धु नदीके साथ शत्रता ही धारण कर रही थी। भावार्थ-वह सेना सिन्धु नदीको हानि पहुँचाती हुई जा रही थी ॥१०॥ वह सिन्धु नदी मानो चक्रवर्ती भरतके आनेसे संतुष्ट होकर ही सुख देनेवाले अपनी लहरोंकी पवनसे धीरे धीरे सेनाके मुख्य लोगोंकी सेवा कर रही थी ॥११॥ जो गङ्गा नदीके समस्त वर्णनसे सहित है और फेनोंसे भरी हुई है ऐसी सामने आई हुई सिन्धु नदीको देखते हुए निधिपति-भरत उत्तर दिशाको जीती हुईके समान समझने लगे थे ॥१२॥ सिन्धु नदीके किनारे किनारे अपनी सेनाओंके द्वारा उत्तर दिशाके राजाओंको वश करते हुए कुलकर-भरत धीरे धीरे विजयाई पर्वतके समीप जा पहुंचे ॥१३॥ जो मणियोंके बने हुए नौ शिखरोंसे बहत विशाल मालम होता था ऐसा वह चाँदीका विजयार्ध पर्वत भरतने दूरसे ऐसा देखा मानो शिखरोंके बहानेसे अर्घ ही धारण कर रहा हो ॥१४॥ जिनकी शाखाओंके अग्रभागरूपी भुजाएँ वायुसे हिल रही हैं ऐसे वृक्षोंसे वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो दूरसे सन्मुख आये हुए विजयी भरतको बुला ही रहा हो ॥१५॥ शिखरोंके समीपसे ही पड़ते झरनोंके जलसे वह पर्वत ऐसा अच्छा सुशोभित हो रहा था मानो चक्रवर्ती भरतके आनेपर उनके लिये पाद्य अर्थात् पैर धोनेका जल ही देना चाहता हो ॥१६॥ वह पर्वत नाग, नागकेसर और सुपारी आदिके वृक्षोंसे भरे हुए तथा मनोहर अपने किनारे के वनके प्रदेशोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो विश्राम करने के लिये स्वामी भरतको बुला ही रहा हो ॥१७॥ जो अपने वनके चारों ओर वायुसे उड़ते हुए फूलोंकी परागका चँदोवा तान रहा है और शब्द करते हुए कोकिल ही जिसके नगाड़े हैं ऐसा वह पर्वत भरतका सन्मान करनेके लिये सामने खड़े हुए के समान जान पड़ता था ॥१८॥ इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ है ? इतना ही बहुत है कि वह पर्वत बड़े प्रेमसे प्रकट किये हुए सत्कारके सब साधनोंसे दिग्विजय करने के लिये उद्यत हुए भरतका मानो सत्कार ही कर रहा था ॥१९॥ जिसके चारों ओर तोरण बँधे हुए हैं ऐसी वनकी ऊंची वेदीको उल्लंघन कर सेनापतियोंके द्वारा नियन्त्रित की हुई (वश की हुई) सेनाने वनके भीतर प्रवेश किया ॥२०॥ समस्त दिशाओंमें फैलनेवाली सेनाओंसे उस वनके समीप
१ सुखस्याहरणम् स्वीकारो ये भ्य (पञ्चमी) स्ते तैः, सुखाकरैरित्यर्थः। २ फेनाढयाम् प०, ल० । ३ विशाल: । ४ रजतमयः । ५ संविधातुमिच्छः । ६ अभात् । ७ संकुलैः ल०, प०, द०, स०, अ०, इ० । ८ वस्तुम् । ६ विस्तारयन् । १० अभिमुखमुत्तिष्ठन् । ११ विभक्त अ०, प०, द०, स०, ल०, इ०। १२ नियमितम् ।
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