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त्रिंशत्तमं पर्व
प्राच्या'नाजलधेरपाच्यनृपतीनावैजयन्ताज्जयन्
निजित्यापरसिन्धसीमघटितामाशां प्रतीचीमपि दिक्पालानिव पार्थिवान्त्रणमयन्नाकम्पयन्नाकिनो
दिक्चक्रं विजितारिचक्रमकरोदित्यं स भूभृत्प्रभुः ॥१२८॥ पुण्याच्च क्रधरश्रियं विजयिनीमैन्द्रीं च दिव्यश्रिय
पुण्यात्तीर्यकरश्रियं च परमां नैःश्रेयसीञ्चाश्नुते । पुण्यादित्यसुभच्छियां चतसणाभाविर्भवेद् भाजनं
तस्मात्पुण्यमुपार्जयन्तु सुधियःपुण्याग्जिनेन्द्रागमात् ॥१२६।। इत्या भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसडामहे
पश्चिमार्णवद्वारविजयवर्णनं नाम त्रिशं पर्व ।
की सीमा तक पश्चिम दिशाको जीतकर दिक्पालोंके समान समस्त राजाओंसे नमस्कार कराते हुए तथा देवोंको भी कम्पायमान करते हुए राजाधिराज भरतने समस्त दिशाओंको शत्रुरहित कर दिया ॥१२८॥ पुण्यसे सबको विजय करनेवाली चक्रवर्तीकी लक्ष्मी मिलती है, इन्द्रकी दिव्य लक्ष्मी भी पुण्यसे मिलती है, पुण्यसे ही तीर्थ करकी लक्ष्मी प्राप्त होती है और परम कल्याण रूप मोक्षलक्ष्मी भी पुण्यसे ही मिलती है इस प्रकार यह जीव पुण्यसे ही चारों प्रकारकी लक्ष्मीका पात्र होता है, इसलिये हे सुधी जन! तुम लोग भी जिनेन्द्र भगवान्के पवित्र आगमके अनुसार पुण्यका उपार्जन करो ॥१२९।।
इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें पश्चिमसमुद्रके द्वारका विजय वर्णन करनेवाला
तीसवाँ पर्व समाप्त हुआ।
१ पूर्वीदिनदेशजान् । २ पूर्वरामुद्रपर्यन्तम् ।
३ दक्षिणदेशभूपान् ।
४ पचिनात् ।
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